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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२८३

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  1. सामाजिक परिस्थिति-अन्न । ॐ

गतं ब्रह्म मधेनालाव्यते सकृत्', इत्यादि त्वं स्मरसि वारुण्या लढाकानां च पक्षि- मनुस्मृति में भी कथित है । महाभारतके णाम् । ताभ्यां चाभ्यधिको भक्ष्यो न कधि- समय भी यह बात मान्य थी कि मद्य-द्विद्यते क्वचित् ॥” ( शां० अ० ३१) पानके लिये, किसी स्थितिमें, भी प्रायः । तात्पर्य ब्राह्मणोंने निवृत्ति धर्मको प्रधान श्चित्त नहीं है; यही क्यों, कलियुगमें भी मानकर मध जैसा मोहक और लदवाक सिसोदिया वंशी राजपूतोंको इसके मान्य पक्षोके मांमसा मधुर पदार्थ अपनी ही होनेकी बात इतिहास प्रसिद्ध है । इस खुशीसे छोड़ दिया था । इस कारण वंशके एक राजाको वैद्यने दवाके रूपमें समाज पर ऐसे ब्राह्मणोंकी धाक बैठ गई मद्य पिला दिया । उसे जब यह बात और वे भारती आर्योंके समाजके अग्रणी मालूम हुई तो उसने पुरोहितसे पूछा- ' तथा धर्मगुरु हो गये तो इसमें श्राश्चर्यको "जो मद्य पी ले उसके लिए क्या प्राय-बात नहीं। महाभारतकालके पहलेसे ही श्चित्त है ?" उत्तर मिला- "पिघला हुश्रा ब्राह्मणोंने सुराका जो सर्वथैव त्याग किया, शीशा गलेमें ढालना चाहिए।" राजाने उसकी महिमा अबतक स्थिर है और ऐसा ही करके प्राण छोड़ दिया: तभीसे कितने ही क्षत्रियोंने भी उसीको अपना इस वंशका नाम सिसोदिया पड़ गया। आदर्श बना लिया है । ब्राह्मणोंके इस महाभारतके समय ब्राह्मणोंने सुगको व्यवहारका परिणाम समग्र भारतीय जन- पूर्णतया वयं कर दिया था । शान्तिपर्व, समाज पर हुए बिना नहीं रहा । समग्र मोक्षधर्म, २.८० वें अध्यायके एक मजेदार भारतीयोंका मद्य पीनेका व्यसन महा- श्लोकसे यह बात निश्चयपूर्वक देख पड़ती भारत-कालमें बहुत ही कम था। इस है। एक गरीब ब्राह्मण, एक धनवान मत्त । बातकी साक्षी यूनानी इतिहासकार भी वैश्यक रथके धक्केसे गिर पड़ा। तब वह देते हैं । मेगास्थिनीज़के ग्रन्थके आधार पर अत्यन्त खिन्न होकर अपनी हीन स्थितिके स्ट्रेवो नामक इतिहास-प्रणेताने लिखा विषयमें शोक करने लगा। वह विलाप : है- "हिन्दू लोग, यक्षके बिना, और कर रहा था कि ऐसे गरीब ब्राह्मणका किसी अवसर पर शराब नहीं पीते " जन्म बहुत ही दुःखदायी और दुर्दैवका है। मेकिंडलने इस पर टीका की है कि यह उसी समय इन्द्र एक गीदड़का रूप धर- उल्लेख बहुधा सोमरसके पानका होगा। कर उसके पास आया और उस ब्राह्मण- : किन्तु सिर्फ ऐसा ही नहीं कहा जा की प्रशंसा करके उसका समाधान करता सकता । मौत्र्यामण्यां सुरापानम्' यह हुआ बोला-"तृ ब्राह्मण हुश्रा, इसमें ही तृ धर्मशास्त्रका वचन प्रसिद्ध ही है । बहुत भाग्यवान है। तुझे जो यह लाभ सौत्रामणि नामक यज्ञमें सुरा पीनी ही हुआ है, इसमें ही तुझे सन्तुष्ट रहना पड़ती थी। और और अन्यान्य यशोंमें चाहिए। मैं शृगाल-योनिमें उपजा है। नब भी अत्यन्त प्राचीन कालमें उत्सवके मेरे सिर कितना पाप है ?" इत्यादि बाते निमित्तमे सुरापान किया जाता था। करते करते इन्द्रने कहा-"तुझे कभी न युधिष्ठिरके अश्वमेध-वर्णनमें सुराके नो मद्यका स्मरण होता है और न लट्वाक पीने का वर्णन है। इसी तरह द्रोण पर्वके पक्षीके मांसका: और सच पूछो तो इस षोड़शराजीय श्राख्यानमें, ६४ | अध्याय- दुनियामें उनसे बढ़कर मोहक और में, मुगपान करनेका वर्णन है। फिर भी अधिक मधुर पदार्थ कहीं नहीं है।" "न ये सारे वर्णन भारतीय कालसे पुराने हैं। ३३