- महाभारतमीमांसा #
संख्या गह हमने महाभारतके अनुक्रमणिका- पहुँच जाती है । अर्थात् महाभारतमें अध्याय (प्रादिपर्व अध्याय २.) में जो कही हुई एक लाखकी संख्यासे यह संख्या अध्याय-संख्या और श्लोक-संख्या पर्वक्रम- बहुत बढ़ जाती है। इस दृष्टिसे देखते से दी है वही इस कोष्ठकमें पहले दी गई हुए हमें यह कहने में कोई अड़चन नहीं है। इसके उपरान्त जिस प्रतिका मराठी- जान पड़ती कि महाभारतकी कुम्भकोणम्- भाषान्तर पाठकोंके सामने रखा गया है | वाली प्रति ऐतिहासिक विचारमें लेने उसके प्रत्यक्ष अध्यायों और श्लोकोंकी योग्य नहीं है और इसी लिये हमने उसे संख्या पर्वक्रमसे दी गई है। इसके उप- अपने विचारमें लिया भी नहीं है। रान्त भागेके खानोंमें गणपत कृष्णजीके ___ यदि हरिवंशको छोड़ दिया जाय तो पुराने छापेखानेमें छपी हुई प्रतिकी श्लोक- बम्बईवाली दोनों प्रतियाँ महाभारतमें दी हुई श्लोक-संख्याके अनुसार ही हैं। यद्यपि दी गई है। इसके अतिरिक्त अभी हालमें अध्यायोंकी संख्या बढ़ी हुई मिलती है मदरासकी ओर कुम्भकोणम्में एक प्रति तो भी कुल मिलाकर श्लोक-संख्या कम छपकर प्रकाशित हुई है । पर्वक्रमसे ही है। इस कारण यह कहा जा सकता उसके अध्यायों और श्लोकोंकी संख्या है कि ऐतिहासिक विचार करनेके लिये भी हमने पाठकोंकी जानकारीके लिये इन प्रतियोंका उपयोग बहुत कुछ बल्कि ठीक करके दे दी है। इन सबसे अच्छा होगा । इसके अतिरिक्त चतुर्धर पाठकोको भिन्न भिन्न प्रतियोंकी तुलना | नीलकण्ठ टीकाकार बहुत ही अनुसन्धान करने में सुगमता होगी। इस कोष्ठकसे से जहाँ जहाँ गौड़ोंका पाठ-भेद होता है पाठक लोग सहजमें समझ लेंगे कि महा- वहाँ वहाँ वह पाठ-भेद देते जाते हैं और भारतमें दी हुई श्लोक-संख्याकी अपेक्षा यदि कहीं कोई श्लोक गौड़ोंके पाठमें न मदरासवाली प्रतिमें बहुत अधिक श्लोक आता हो तो वह भी टीकामें दिखला है। परन्तु बम्बईवाली दोनों प्रतियोंमें वह देते हैं । इसलिये नीलकण्ठकी टीका- बात नहीं है। उनकी श्लोक-संख्या प्रायः वाली बम्बईकी प्रति महाराष्ट्र और गौड़ समान ही है और महाभारतमें दी हुई दोनों प्रान्तोंमें सर्वसम्मत है और ऐति- श्लोक-संख्यासे मिलती है। कुम्भकोणम्की हासिक विचारमें लेने योग्य है। और प्रतिमे जो अध्याय सन्दिग्ध मानकर छोटे! श्रागेकी मीमांसामें हमने उसीका उप- टाइपोंमें दिये गये हैं, उन्हें हमने उक्त योग किया है। बम्बईकी दोनों प्रतियों में कोष्ठककी गिनतीमें नहीं लिया है। तो भी बहुत ही थोड़ा भेद है; और केवल एक प्रत्येक पर्वमें प्रायः हज़ार दो हज़ार श्लोक ही अवसर पर हमें उस भेद पर ध्यान बढ़ गये हैं; और यदि महाभारतमें कहे अनु- देना पड़ा है। इस प्रस्तावमें केवल इतना सार हरिवंशके १२००० श्लोक उसमें और ही कहकर अब हम मीमांसाके भिन्न भी मिला दिये जायँ तो इस प्रतिको भिन्न विषयोमेसे पहले महाभारतके श्लोक-संख्या एक लाख दस हज़ार तक कर्ताओंके सम्बन्धमें विचार करते हैं।