३२५ & राजकीय परिस्थिति। इसे बीज और भक्त कहा गया है। ये 'पुरमें विभक्त रहती थी। आजकल प्रान्त बीज और भक्त सरकारी कोठोंसे दिये ' शब्दका अर्थ देशका विभाग होता है। जाते थे। यदि साहूकार देता तो सरकार परन्तु प्राचीन कालमें प्रान्तका अर्थ अन्तके वसूल करके वापस दिला देती रही निकटका यानी राष्ट्रकी सीमाके पासका होगी । आश्चर्यकी बात यह है कि प्रदेश होता था। पुरका अर्थ राजधानी नारदके इस प्रश्नमें ब्याजकी दर भी था । अकालके डरसे एकत्र किया हुआ निश्चित देख पड़ती है ! प्रति मास सौ ' अनाज बहुधा नगर या राजधानीमें जमा रुपयों पर १ रुपयेकी दर निश्चित थी: ! किया जाता था। और इस बातका निर्बन्ध कर दिया गया। इसके सिवा कहा गया है कि कृषि, था कि साहकार लोग इससे अधिक गोरता और वाणिज्यकी तरक्कीके लिए दरसे ब्याज न लें । स्वदेशी राज्यों में यह · गजा विशेष प्रयत्न करे । इसके सम्बन्धमें नियम चन्द्रगुप्तके समयसे आज २२०० एक स्वतन्त्र शास्त्र वार्ता ही बनाया गया वर्षातक प्रचलित है । यह देखकर इस था। उसके अनुसार कृषि और वाणिज्यकी बातकी कल्पना हो सकती है कि हिन्दु- उन्नति करके देशकी दशाको उत्तम स्थानकी प्राचीन संस्था कितनी स्थिर बनानेका प्रयत्न करना वैश्य लोगोंका और टिकाऊ होती है। यह नियम था और द्रव्यकी सहायता देना राजाओंका कि "कृषिका उत्कर्ष करनेके लिए राजा काम था। राजाओं पर चौथी जवाबदारी किसानोंकी दशा अच्छी रखनेकी ओर अकालग्रस्त लोगोंको अन्न देनेकी थी। ध्यान दे। वह यह देखा करे कि उनके । अन्धे, मूक, लङ्गड़े आदि लोगोकी पास निर्वाहके लिए अनाज और बीज जीविकाकी जिम्मेदारी भी राजा पर थी। पुरा रा है या नहीं। और. प्रति मास कञ्चिदन्धांश्च मूकांश्च पंगून् व्यंगान- फी सैंकड़े एक रुपयेसे अधिक ब्याज बांधवान् । पितेव पासि धर्मज्ञ तथा न लेकर वह दयापूर्वक उन्हें कर्ज प्रवाजितानपि ॥ दिया करें। अर्थात् जो अन्धे, मूक, लङ्गड़े, व्यङ्ग शरीरवाले हो, जिनकी रक्षा करनेवाला ग्राम-संस्था। , काई न हो श्रीरजाविरक्त होकर संसारका सभापर्वमें बतलाया गया है कि त्याग करके संन्यासी हो गये हों उनका प्रत्येक गाँवमें पाँच पाँच अधिकारी रहते पालन-पोषण राजा पिताकी तरह करें। थे। ये अधिकारी स्थायी अथवा वंशपर- इसी तरह वह राष्ट्रको अग्नि, सर्प और म्परागत होते थे। टीकाकारने उनके नाम बाघ तथा रोगके भयसे बचानेका इस प्रकार बतलाये हैं-प्रशास्ता (सिर- उपाय करे । आजकलके प्रत्येक उन्नत राष्ट्र पंच), समाहर्ता(वसूल करनेवाला),सम्वि- अपने ऊपर इस तरहकी जिम्मेदारीका धाता लेखक (पटवारी या मुन्शी) और होना मानते हैं और महाभारतकालके साक्षी। यह नहीं बतलाया जा सकता कि राज्योंमें भी ऐसी ही जिम्मेदारी समझी साक्षीकी विशेष क्या आवश्यकता थी। जाती थी। इससे पाठक समझ सकगे ये पाँचो अधिकारी शुर, सजन और एक कि पूर्वकालसे ही राजाओंके कर्तव्यको मनसे काम करनेवाले होते थे । गष्टमें। कल्पना कितनी दुग्तक पहुंच गई थी। मनुष्योंकी बस्ती प्रान्त, ग्राम, नगर और नाग्दने उपदेश किया है कि इनाम और
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