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महाभारतमीमांसा

® महाभारतमीमांसा खुद भीष्मके बधका उपाय नहीं बतला दुर्घतदेवी नृपतिर्निवार्यः सकते थे। सारांश यह है कि भीष्मके सन्मंत्रिणा धर्मपथि स्थितेन । उज्वल शीलको कलङ्क लगानेवाला यह त्याज्योथवा कालपरीतबुद्धि- कथाभाग पीछेका है। धर्मातिगो यः कुलपांसनः स्यात् ॥ यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि भीष्मस्तदाकर्ण्य कुरुप्रवीरं अपना राजा भनीतिका आचरण करता। राजापरं दैवतमित्युवाच ॥ है और उसका पक्ष सरासर अन्याय-! ये श्लोक अत्यन्त महत्त्वके हैं। इनमें पूर्ण है, तो क्या उसकी ओरसे लडना एक अत्यन्त महत्वके प्रश्नके सम्बन्धमें भी अन्याय नहीं है ? ऐसे मौके पर नीति-! पूर्व पूर्व कालमें दो मतोंका होना दिखाई मानको क्या करना चाहिए ? इस प्रश्नके पड़ता है। जब यह प्रश्न उठे कि यदि सम्बन्धमें महाभारतमें एक मनोरखका राजा दुराचारी हो तो क्या किया जाय, सम्बाद पाया जाता है। यह सम्बाद भी तब इसके सम्बन्धमे भीमने इस तत्वका और श्रीकृष्णके दरमियान उस समय प्रतिपादन किया है कि उसकी प्राशाको हुभा जब भीष्मने अतिशय पराक्रम सवथा मान्य समझकर उसका पक्ष करके अर्जुनको मूञ्छित कर दिया और कभी नहीं छोड़ना चाहिए: और श्री- जब श्रीकृष्णने अपनी प्रतिक्षा छोड़कर कृष्णने इस तत्वका प्रतिपादन किया भाष्म पर चक्र उठाया । उस समय जब है कि जो उत्तम मन्त्रीहे, उन्हें राजाका श्रीकृष्ण चक्र ले निग्रह करना चाहिए और यदि वह ब उन्होने भीष्मसे कहा कि-"सब अनर्थोकी जड़ . कुछ भी न माने तो उसका त्याग कर देना तू ही है; तुने दुर्योधनका निग्रह क्यों नहीं चाहिए । अर्थात्, उसे गहीसे उतारकर किया ?" तब अपने आचरणका समर्थन दूसरे राजाको बैठा देना चाहिए । ये करनेके लिए भीष्मने उत्तर दिया कि दोनों पक्ष उदात्त राजनीतिके हैं, पूज्य हैं (राजापरं देवतमित्युवाच- "राजा और इन्हें भीष्म तथा श्रीकृष्णने अपने सबका परम देवता है ।" भीष्मने यह चरणसे भी दिखा दिया है। परन्तु भी कहा है कि-"तू मुझ पर चक्र ऐसी परिस्थितिमें शत्रुसे मिल जानेके उठाता है, यही बात मेरे लिए त्रैलो- तासर मागेका विभीषणने जो स्वीकार क्यमें सम्मामसूचक है; मैं तुझे नमस्कार किया, वह हीन और निन्ध है। स्मरण करता हूँ।" यह कहकर भीष्म चुपचाप रहे कि भारतमें वर्णित उदात्त आचरणके खड़े रहे। इतनेमें अर्जुनने होशमें आकर किसा किसी व्यक्तिने उस हीन तत्वका स्वीकार श्रीकृष्णको वापस लौटाया। यह कथा- नहीं किया है। भाग भीष्मपर्वके 18 वें अध्यायमें है। उद्धर्षण-विदुला-संवाद। परन्तु बहुतसी प्रतियोंमें यहाँके मृत्युके लोक नहीं हैं । यहाँके श्लोक ये हैं:- ___पराजित होनेवाले राजाको धीरज | देनेवाला तथा उत्साहयुक्त बनानेवाला श्रुत्वा वचः शांतनवस्य कृष्णो। उद्धर्षण-विदुला-संवाद राजकीय धर्ममें वेगेन धास्तमथाभ्युवाच ॥ एक अत्यन्त महत्त्वका भाग है। अतएष स्वं मूलमस्येह भुवि क्षयस्य । वह अन्तमें उल्लेख करने योग्य है । भारत- दुर्योधर्म खाद्य समुद्धरिष्यसि ॥ में सत्यज्ञानका सर्वस्व जैसे गीता है, उसी