पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/४३६

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महाभारतमीमांसा

४०० 8 महाभारतमीमांसा पूल, वारण और वाटधान तथा यमुनाके सरस्वती नष्ट हुई, अर्थात् रेतमें गुप्त हो दक्षिणके पहाड़तक फौजे फैली हुई थी। गई, इसी लिए इसका नाम विनशन है। बहुत लोगोंकी ऐसी कल्पना रहती है कि, ' इस जगह उन्होंने सरस्वती नदीमें स्नान भारती-युद्ध किसी छोटेसे भागमें हुआ किया । यहाँसे उत्तर जाते हुए उन्होंने था। परन्तु महाभारतमें अन्यत्र वर्णन सरस्वतीके किनारके अनेक तीर्थ देखे। किया गया है कि कुरुक्षेत्र, अहिच्छत्र आगे चलते चलते वे द्वैत वनमें पहुंचे। (आजकलका रामपुर) और वारण वाट- इस धनका वर्णन हम पहले कर ही चुके धान नामक ग्राम दक्षिण ओर हस्तिनापुर- है। यह वन हिमालयको तराईके आसपास से बहुत अन्तर पर हैं । यहाँतक फौजें थीं। था। इसके आगे सरस्वती दक्षिणकी इससे जान पड़ता है कि, सो कोस लम्बे ! ओर घूमी है। आगे चलकर यहाँ यह और पचाससे सौ कोसतक चौड़े प्रदेश- लिखा है कि हिमालयसे सात नदियाँ में भारती-युद्ध हुश्रा होगा। निकली: और वे सब मिलकर सरस्वती __सरस्वतीके विषयमें महाभारत में एक बन गई । इस कारण उसे सप्तसारस्वत स्वतन्त्र आख्यान शल्य पर्वमें दिया हुआ नाम प्राप्त हुआ है। वहाँसे भागे अनेक है। उससे हमको सरस्वतीका बहुतसा तीर्थ देखते हुए वे हिमालयके भीतर वृत्तान्त मालम हो जाता है। बलराम प्रविष्ट हुए; और सरस्वतीके उदगमतक युद्धमें न जाकर सरस्वतीकी तीर्थयात्राको उन्होंने यात्रा की। सरस्वतीके किनारे गये। लिखा है कि उस समय वे सर- अनेक ब्राह्मण प्राचीन कालसे रहते थे। खतीकी उलटी दिशासे, अर्थात् मुखकी एक बार बारह वर्षकी अनावृष्टि हुई,अत- श्रोरसे उद्गमको ओर गये । वास्तवमें एव ब्राह्मणोंको कुछ भी खानेको न मिलने सरस्वती समुद्र में नहीं मिलती । आज- लगा। तब सारस्वत मुनिने सरस्वतीकी कल भी वह घाघरा नदीमें जाकर मिलती। श्राशासे मत्स्यों पर अपना उदरनिर्वाह ' है। परन्तु प्राचीन कालमें कभी न कभी किया और वेदोंकी रक्षा को । जो ब्राह्मण यह नदी अरब समुद्र में कच्छके रणके भटककर अन्य स्थानों में चले गये थे उन्हें पास मिलती होगी । बलरामने अपनी सारस्वत मुनिने, अवर्षण समाप्त होनेके यात्रा प्रभास तीर्थसे प्रारम्भ की । यह बाद, वेदोका अध्याय बतलाया, इसलिए तीर्थ आजकल द्वारकाके दक्षिण में पश्चिम वे सब सारस्वत मुनिके शिष्य बन गये: किनारे पर है। इसके बाद वे चमसोद्भेद और तभीसे मत्स्य खानेकी चाल इन तीर्थ पर गये । वहाँसे फिर उदपान तीर्थ ब्राह्मणों में पड़ी । अस्तु: इसके बाद यमुना- पर गये। लिखा है कि यह तीर्थ केवल के किनारे किनारे चलकर बलदेव कुरुक्षेत्र- एक कृाँ था । परन्तु यह भी कहा है में स्यमन्तपञ्चकमें उतरे: और गदायुद्धके कि इस जगहके लतावृक्षोंकी हरियालीसे समय वे उपस्थित हुए । इस प्रकार सर- और भूमिकी स्निग्धतासे सिद्ध लोग स्वती श्राख्यानमें सरस्वतीके मुखसे उद्गम- सहज में ही पहचान सकते हैं कि यहाँसे तकका वर्णन आग या है । इस पाख्यानसे सरस्वती नष्ट हो गई है। अवश्य ही वह यह अनुमान करनेमें कुछ भी बाधा नहीं कूत्रा मारवाड़केरेगिस्तानमें होगा। इसके जान पड़ती कि प्राचीन कालमें सरस्वती बाद बलराम विनशन तीर्थ पर गये। नदी प्रत्यक्ष मारवाड़से बहती हुई पश्चिम- इस जगह शद्राभीरोंके शेषके कारण समुद्र में जा मिलती थी।