४५०
- महाभारतमीमांसा
- वाद है कि सार्वजनिक मन्दिर थे जिनमें तीन ही हैं, दो ही हैं और एक ही प्रतिमा पूजी जाती थी। यह कहना ठीक हैं। महाभारतमें, अनुशासन पर्वके नहीं अँचता कि ये मूर्तियाँ बौद्धोंसे ली १५० वें अध्ययनमें तेंतीस देवताओं- गई हैं। हिन्दूधर्ममें महाभारतके समय की गिनती इस प्रकार बतलाई है-आठ मूर्तियाँ प्रचलित थी और वे शिव, विष्णु वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य और और स्कन्द प्रादि देवताओंकी भक्तिसे शुरू दो अश्विन् । ग्यारह रुद्र ये हैं- १ अजैक- हुई थी। महाभारतसे ही देख पड़ता है पाद, २ अहिर्बुध्न्य, ३ पिनाकी, ४ अप- कि शिव, विष्णु और स्कन्द श्रादिको राजित, ५ ऋत, ६ पितृरूप, ७ त्र्यंबक, भकि महाभारतकालमें बहुत प्रचलित - महेश्वर, वृषाकपि, १० शम्भु, और थी। इसी तरह पाणिनिके सूत्रसे भी ११ हवन । बारह प्रादित्य ये हैं-१ अंश, निश्चयपूर्वक ज्ञात होता है कि इन देवता- २ भग, ३ मित्र, ४ वरुण, ५ धाता, ६ ओंकी मूर्तियाँ महाभारतके पहलेसे ही अर्यमा, ७ जयन्त, - भास्कर, ६ त्वष्टा, प्रचलित रही होगी। पाणिनिके मूत्रोंका: १० ऊशन , ११ इन्द्र और १२ विष्णु । पाठ समय बुद्धके अनन्तरका अथवा पूर्वका वसु इस प्रकार है-१ धरा, २ ध्रुव, ३ माना जाय तो भी यह निर्विवाद है कि सोम, ४ सवितृ ५ अनिल, अनल, ७ उस समय शिव, विष्णु और स्कन्दकी प्रत्यूष, और = प्रभास । दोनों अश्विन मूर्तियाँ होंगी । यद्यपि मन्दिर और मूर्तियाँ नासत्य और दम्र है। नहीं कह सकते रही हो तथापि आर्योंके आह्निक धर्मकृत्यमें कि इस प्रकारकी गणना कबसे शुरू हुई। अबतक देवताओंकी पूजा न थी-यह परन्तु इसमें बहुत करके सभी वैदिक बात महाभारतसे और गृह्यसूत्रोंसे भी देवता आ जाते हैं । अचरजकी बात यह है निश्चित देख पड़ती है । वैदिक देवता ' कि वरुण, इन्द्र और विष्णु इन विशेष कल ३३ माने गये थे। परन्तु तेतीस . देवताओंका समावेश आदि किया देवताओं से बहुत थोड़ोंकी प्रतिमाएँ बनीं गया है । अदितिके पुत्र ही आदित्य है। अथवा मन्दिर तैयार हुए। अर्थात् अधिकांश देवता श्रादित्य ही हैं। ३३ देवता। परन्त इसमें प्रजापतिका अन्तर्भाव कहीं ततीस देवताओंकी गणनामहाभारत- नहीं किया गया। वसु बहुत करके पृथ्वी- में भिन्न भिन्न है। पाठ वसु, ग्यारह रुद्र, के देवता है। धरा, वायु और अग्नि तो द्वादश आदित्य, इन्द्र और प्रजापति-ये स्पष्ट ही हैं। प्रत्यूषका अर्थ सवेरा है। नाम वृहदारण्य उपनिषद्में हैं, और उसी- इसीमें वैदिक देवता उषाका समावेश में कहा है कि वैसे देवता तो अनन्त हैं, किया हुआ देख पड़ता है। परन्तु यह यह उनकी एक महिमा है। अवरजकी बात है कि सवितृ अथवा महिमान एवैषां एते त्रयस्त्रिंशत्वेव सूर्यकी गणना वसुओंमें भी करके आदि- देवाः इति । कतमते त्रयस्त्रिंशत् इत्यष्टौ | त्योम भी किस तरह की जाती है । रुद्रोके वसव एकादश रुद्रा द्वादश आदित्यः ते बहुतेरे नाम आजकल महादेवके नाम हैं। एक त्रिंशत् इन्द्रश्चैव प्रजापतिश्च । सिर्फ वृषाकपि नाम विष्णुका हो गया त्रयस्त्रिशाइति ॥ देख पड़ता है। वसु, रुद्र और आदित्य ये इसके आगे वृहदारण्यक उपनिषद्- देवताओंके भेद हैं । यह कल्पना वैदिक में इस प्रकार वर्णन किया है कि देवता कालसे लेकर महाभारतकाल पर्यन्त चली