पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/४७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  • धर्म । ॐ

४५१ - आई है और आजकल भीवैदिक क्रियामें, तादात्म्य करके 'तद्विष्णोः परमं पदम्' कहा विशेषतः श्राद्ध के समय, प्रचलित है। गया है। अर्थात् ब्राह्मण-कालकी ही भाँति MAI दशोपनिषत्कालमें भी विष्णु समस्त देव- भारती-कालमें इन वैदिक देवताओंमें- ताओंमें श्रेष्ठ माने जाते थे। इसके अनन्तर से शिव और विष्णुके ही सम्बन्धसे तत्त्व- श्रीकृष्णकी भक्ति उत्पन्न हुई और यह शानके दो पन्थ भी उपस्थित हुए, जिनकी भाव सहज ही उत्पन्न हो गया कि संशा पाञ्चरात्र और पाशुपत है। इन्हीं श्रीकृष्णजी, विष्णु के अवतार हैं। विष्णु- दो देवताओके सहस्रनाम महाभारतमें के चार हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और दिये गये हैं। इससे देख पड़ता है कि पद्म श्रायुध हैं। यह कल्पना महा- महाभारतके समय इनका महत्त्व पूर्णतया भारत-कालमें पूर्णतया प्रचलित थी और प्रस्थापित हो गया था। ब्राह्मण-कालमें भी इसी तरह महाभारतमें वर्णन है। इस यह तत्व स्थापित हो गया था कि विष्णु मतके अनुसार श्रीकृष्णके भी चार हाथ देवताओंमें श्रेष्ठ है। 'अग्नि देवानामवमो हैं और उनमें शंख, चक्र, गदा, पद्म प्रायुध विष्णुः प्रथमः।' इस वाक्यसे स्पष्ट देख दिये गये हैं। उस समय विष्णुकी मूर्तिका पड़ता है कि अग्नि सब देवतात्रोंमें छोटा ! ऐसा ही स्वरूप बनाया गया। अब, इसके और विष्णु श्रेष्ठ है। वैदिक देवताओंमें पश्चात् , श्वेताश्वतर उपनिषद् शिवको इन्द्र सबसे श्रेष्ठ है; पर यह ब्राह्मण-काल- प्राधान्य दिया हुश्रा पाया जाता है। इस में और भारती-कालमें कैसे पीछे रह गया, उपनिषदें वर्णन है कि परब्रह्म ही शिव इसका अचरज होता है। तथापि, बुद्धके है । तत्वशानके विषयमें पहले यह विरोध समय भी इंद्रका बहुत कुछ महत्व था: । उत्पन्न हुआ और यही शिव-विष्णुकी क्योंकि बौद्ध ग्रन्थों में इन्द्रका उल्लेख बारं- उपासनामै झगड़ेकी जड़ हो गया। महा- बार किया गया है, वैसा शिव-विष्णुका भारतसे यह बात देख पड़ती है। शिवके नहीं है । महाभारत-कालमें शिव और जिन स्वरूपोंकी कल्पना की गई है वे दो विष्णुका, देवताओं के बीच अग्रणी होनेका प्रकारके हैं । शिवका प्रधान स्वरूप योगी जो पूज्य भाव उत्पन्न हो गया वह अबतक अथवा तपस्वी कल्पित है। उसका रङ्ग स्थिर है। कुछ लोग समस्त देवताओंमें गोरा है, सिर पर जटाएँ हैं और व्याघ्रा- शिवको मुख्य मानते थे, कुछ लोग विष्णु- म्बरको प्रोढ़े हुए दिगम्बर है। जो दूसरा को मुख्य मानते थे। जिस ईश्वरकी स्वरूप वर्णित है और जो महाभारतमें भी कल्पना ऋग्वेद-कालसे स्थापित हुई थी, पाया जाता है वह लिङ्ग-स्वरूप है । महा- अथवा जिस एक परब्रह्मका वर्णन उप- भारतमें बतलाया गया है कि शिवके अन्य निषदोंने अत्यन्त उदात्त किया है, उस स्वरूपोंकी पूजाको अपेक्षा लिङ्ग-स्वरूपसे ईश्वर या परब्रह्ममें कुछ लोगोंने विष्णुकी। शिवको पूजा करना अधिक महत्वका स्थापना की, तो कुछने उसमें शिवकी और विशेष फलवान् है । द्रोण-पर्वके स्थापना की। शिव और विष्णुके मतका २०२रे अध्यायमें यह लिखा है- विरोध महाभारत-कालमें खासा देख पूजयेत्विग्रहं यस्तु लिङ्गंचापि महात्मनः। पड़ता है। पाठक देख ही चुके हैं कि इस लिङ्गे पूजयिताचैव महतीं श्रियमभुते ॥ विरोधका उद्गम उपनिषत्कालमें ही है। महाभारतमें, सौनिक पर्वके १७० कठोपनिषद् परब्रह्मके साथ विष्णुका | अध्यायमें, इस विषयका आख्यान है कि