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- महाभारतमीमांसा *
कर्नव्य बहुन ही बिगड़ गया है । गाय तप और उपवास। रखना प्रायः बन्द होगया है। गायके दूधमें अब तपका विचार करना है। तपके बुद्धिमत्ताके जो गुण हैं, उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता: और गायके दूधके | भिन्न भिन्न भेद वर्णित हैं। इन भेदोंमें बदले भैसके दृधका चलन बहुत अधिक | उपवास मुख्य और श्रेष्ठ कहा गया है* | | उपवास करना प्रायः सभी धर्मों में मान्य हो गया है। अतएव बुद्धिमत्ताके सम्ब- किया गया है। उपवास करनेकी प्रवृति धमें इस दूधके परिणाम बहुत ही बुरे और हानिकारक होते हैं । क्योंकि बुद्धि- उपनिषत्कालसे है। वृहदारण्यमें परमे- मत्ताके सम्बन्धमे इस दूध गायके दूध- श्वरको जाननेका मार्ग यो वर्णन किया गया है- की अपेक्षा बहुत ही थोड़े गुण हैं । गाय- बैलोका पालना घट जानेसे, शुद्धताके. तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदि- सम्बन्धमें गोबर और गोमूत्रका बहुत कम शन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन । उपयोग होने लगा है। इस विषयमें अनाशकका अर्थ उपवास है। भारती- सुधार होनेकी आवश्यकता है । प्रत्यक्ष | कालमें उपवासका मार्ग बहुत कुछ प्रच- गोदानका जो गौरव महाभारत-कालमें |लित था: उसको जैनोंने खूब स्वीकार प्रसिद्ध था, वह जिस दिन फिर भारती | किया । अनुशासन पर्वके १०५---१०६ आर्योंके ध्यानमें श्रा जाय और भारतमें अध्यायमें भिन्न भिन्न प्रकारके उपवासों- अब गार्योकी समृद्धि होजाय, वही सुदिन है। का वर्णन है, और इन उपवासोंके करनेसे महाभारत-कालमें तिल-दान भी बहुत जो जो फल मिलते हैं, उनका भी वर्णन प्रशस्त माना जाता था: कयोंकि तिल ! है। परन्तु सवका इत्यर्थ बहुधा यह देख पौष्टिक अन्न है, और महाभारतके समय पड़ता है कि उपवास करनेवालेको स्वर्ग- तिल खानेका चलन बहुत ही अधिक था। प्राप्ति होती है और वहाँ अप्सराओं एवं अब तो इसका चलन बहुत ही घट गया देव-कन्याओंके उपभोगका सुख मिलता है; परन्तु महाभारतमें अनुशासन पर्वके है । स्वर्गमे इस प्रकारका निग भौतिक कर अध्याय तिल और तिल-दानकीस्तति- सुख मिलनेका वगान महाभारतमें. अन्य से भरे पड़े हैं। तिल पितगंको भी प्रिय है। स्थलों पर, कम पाया जाता है । उल्लिखित और श्राद्धकर्ममें पवित्र माने गये हैं। उपनिषद्वाक्यसे यह भी प्रकट होता है कि इस कारण भी इनके दानकी बड़ाई की उपवास करनेसे परमेश्वरका ज्ञानतक प्राप्त जानी होगी। सुवर्ण-दान और अन्न-दान होता है। तब, यह कहना कुछ अजीय दोनोंकी जो प्रशंसा महाभारतमें है वह सा अँचता है कि उपवास करनेसे केवल योग्य हो है । विस्तारके साथ उसको स्वर्गकी अप्सगोंका सुख मिलता है। लिखनेकी आवश्यकता नहीं। इन दोनों उपवासकी जो विधि लिम्वी है, उसमें वर्णन दानोंकी आवश्यकता और महत्त्व इस है कि उपवास एक दिनका, दो दिनका, समय भी कम नहीं। इसके अतिरिक्त जो लगातार तीन दिनका, इस तरह बढ़ाते भूमि-दान, कन्यादान और वस्त्र-दान बढाते वर्ष भर करना चाहिए। कहा गया प्रभृति दान वर्णित है, उनका पुण्य
- नारित वेदात्परं शास्त्र नास्ति मातृसमोगुरुः ।
अधिक है ही और वे सदा सर्वदा प्रया- नारित धर्मात्पगे लाभरतपो नानशनात्परम् ॥ (६२ अन० प्रा० १०६)