पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५७५

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मि मतीका इतिहास। * यह बात गर्मित है कि ये असुर ब्रह्मदेवके नाम प्रधान है। प्रकृतिसे व्यक्तका निर्माण वरसे ही पैदा होते थे और अन्तमें उन्हें हुआ जिसको अनिरुद्ध या अहङ्कार कहते मरवानेके लिए ब्रह्मदेव नारायणके पास है और वही लोगोंमें (वेदान्तमें) महान् जाकर उनसे प्रार्थना करते थे। श्वेत आत्माके नामसे प्रसिद्ध है। उससे ब्रह्म- शीपमें नारदको भगवानके दर्शन होनेका देव पैदा हुआ और ब्रह्मदेवने मरीचादि और दोनोंके भाषणका उपर्युक्त वर्णन सात ऋषि और स्वयंभु मनु उत्पन्न किये। जिसमें किया है उसका नाम है महोप- : इनके पूर्व ब्रह्मदेवने पंच-महाभूत तथा निषत् । और इस मतमें यह माना गया उनके पाँच शब्दादि गुण उत्पन्न किये। है कि वह नारदका बनाया हुआ पांच- सात ऋषि और मनुको मिलाकर अष्ट- रात्र है। यह भी कहा है कि जो इस कथा- प्रकृति होती है, जिससे सारी सृष्टि हुई। का श्रवण और पठन करेगा वह चन्द्रके यह सब पांचरात्र मत है। इन्होंने देव समान कान्तिमान् होकर श्वेतद्वीपको उत्पन्न किये और जब तपश्चर्या की तब जायगा । यहाँ यह भेद किया हुआ दिखाई यक्षकी उत्पत्ति हुई और ब्रह्मदेवके इन देता है कि भगवद्गीता उपनिषत् है और मानस-पुत्र ऋषियोंने प्रवृत्ति-धर्मका यह आख्यान महोपनिषत् है। अर्थात् . आश्रय लिया। इनके मार्गको अनिरुद्ध यह आख्यान भगवद्गीताके बादका है। कहते हैं । मन, सनत्सुजात, सनक, सनंद, ___ भगवद्गीताकं ढङ्ग पर इस महाप. सनत्कुमार, कपिल और सनातन ब्रह्म निषद्को उपदेश-परम्पग भी बतलाई देवके दुसरं मामस-पुत्र हैं। इन्होंने गई है । पहले नारदने इस ब्रह्मदेवके निवृत्ति मार्ग स्वीकृत किया। मोक्ष धर्म- सदनमें ऋषियों को सुनाया: उनसं इस कामार्गइन्होंने ही दिखाया। इस अध्याय. पांचरात्र उपनिषत्को सूर्यने सुना । सूर्य- में वह वर्णन है कि प्रवृत्ति-मार्गियोकी से देवोंने इसे मेरु पर्वत पर सुना। पुनरावृत्ति नहीं टलती । इससे पांच.. देवोंसे असित ऋषिने, असितसे शान्तनु- रात्रका मत यह दिखाई देता है कि यह ने, शाम्तनुसे भीष्मने और भीष्मसे धर्मने मार्ग नारायणने ही दिखाया, यशके सुना । भगवद्गीताके समान, यह भी : हविर्भागका भोक्ता वही है, वही निवृत्ति कहा गया है कि-"जो वासुदेवका भक्त । मार्गका दर्शक है और वही उसका पालन न हो, उसे तू इस मतका रहस्य मत । भी करता है। यह भी दिखाई देता है कि बतला।" इस प्रमाणसे अधिक विश्वास वे यह भी मानते हैं कि प्रवृत्ति हीन है और होता है कि नारायणीय उपाख्यान भग- निवृत्ति श्रेष्ठ है । अथवा सम्भव है कि वदीताके बाद बना है। सौतिने यह वर्णन सब मतोंके भेद मिटाने- इसके प्रागेके ३४०वं अध्यायमें यह के लिए किया हो। बतलाया गया है कि नागयण यक्षका ३४१वे और ३४२वें अध्यायों में नारा- भोक्ता और कर्ता कैसे है ? सांख्य और यणके नामोकी उपपत्ति लिखी है जो वेदान्तके तत्व-शानोंका मेल करके सृष्टि- बहुत ही महत्वकी है। यह संवाद प्रत्यक्ष की उत्पत्तिका जो वर्णन किया गया है। अर्जुन और श्रीकृष्णके बीच हुआ है और उससे मालूम होता है कि परमात्माको, श्रीकृष्णने स्वयं अपने नामकी व्युत्पत्ति उसके कर्मके कारण ही, महापुरुष कहते बनाई है। सौतिने अपनी हमेशाकीरीति- हैं । उसीसे प्रकृति उत्पन्न हुई जिसका' के अनुसार पहले श्रीकृष्णके मुखसे वर्णन