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महाभारतमीमांसा

ॐ महाभारतमीमांसा 3- -- - - -


- कराया है कि शिव और विष्णुमें कोई है। इसका सम्बन्ध वेदसे है। ब्रह्मदेवने भेद नहीं। "रुद्र नारायण स्वरूपी है। कमलमें बैठकर वेदोका निर्माण किया। अखिल विश्वका आत्मा मैं हूँ और मेरा उन्हें मधु और कैटभ दैत्य ले गये। उस प्रात्मा रुद्र है। में पहले रुद्रकी पूजा समय ब्रह्मदेवने शेषशायी नारायणकी करता" इत्यादि विस्तत विवेचन | प्रार्थना की। तब नारायणने ईशान्य प्रारम्भमें किया गया है। "आप अर्थात् समुद्र में हयशिरा रूप धारण कर ऊँची शरीरको ही 'नारा' कहते हैं,सब प्राणियों- आवाजसे वेदका उच्चारण करना प्रारम्भ का शरीर मेरा अयन अर्थात् निवास- किया । तब वे दानव दूसरी ओर चले स्थान है इसलिये मुझे नारायण कहते हैं। गये और हयशिरने ब्रह्मदेवको वेद वापस सारे विश्वको मैं व्याप लेता हूँ और ला दिये । भागे मधु-कैटभने नारायण सारा विश्व मुझमें स्थित है इसीसे मुझे पर चढ़ाई की, तब नारायणने उनको वासुदेव कहते हैं । मैंने सारा विश्व व्याप मारा । इस प्रकार यह कथा है । इस लिया है अतएव मुझे विष्णु कहते हैं। रूपका तात्पर्य ध्यानमें नहीं आता। यदि पृथ्वी और स्वर्ग भी मैं हूँ और अन्तरिक्ष भी इतना ध्यानमें रखा जाय कि पांचरात्र मैं हूँ इसीसे मुझे दामोदर कहते हैं । चंद्र, मत वैदिक है और वेदसे इस स्वरूपका सूर्य, अग्निकी किरणे मेरे बाल हैं इसलिए निकट सम्बन्ध है, तो मालूम हो जायगा मुझे केशब कहते हैं । गो यानी पृथ्वीको कि वैदिक मतके समान ही इस मतका मैं ऊपर ले आया, इसीसे मुझे गोविंद आदर क्यों है ? पांचरात्रका मत है कि कहते हैं । यज्ञका हविर्भाग में हरण करता ब्रह्मदेव अनिरुद्धकी नाभिसे पैदा हुआ: हूँ इसीसे मुझे हरि कहते हैं। सत्वगुणी परन्तु यहाँ यह यतलाने योग्य है कि अन्यत्र लोगों में मेरी गणना होती है, इसीसे मुझे महाभारतसे और पौराणिक कल्पनासे सात्वत कहते हैं ।" "लोहका काला म्याह लोगोंकी यह धारणा भी है कि नारायणके (कुसिया ) हलका फार होकर में जमीन ही नाभिकमलसे ब्रह्मदेव पैदा हुआ। जोतताहूँ और मेरा वर्ण कृष्ण है इससे मुझे श्वेत द्वीपसे लौट आने पर नर-नारा- कृष्ण कहते हैं ।" इससे मालूम हो जायगा यण और नारदका जो संवाद हुआ है कि कृष्णके चरित्रसे इन व्युत्पत्तियोंके वह ३४२वें तथा ३४३वे अध्यायमें दिया द्वारा भिन्न भिन्न अर्थके नाम उत्पन्न है। उसकी दो बातें यहाँ अवश्य बत- हुए और वेदान्तिक या पांचरात्रिक मत- लानी चाहिएँ। नारायणने श्वेत द्वीपसे के अनुसार उन नामोका कैसा भिन्न श्रेष्ठ तेजसंक्षक स्थान उत्पन्न किया है। अर्थ किया गया है। हर एक मतके शब्दों वह वहाँ हमेशा तपस्या करता है। उसके में कुछ गुह्य अर्थ रहता है और यह स्पष्ट तपका ऐसा वर्णन है कि-"वह एक पैर है कि उसीके अनुसार ये अर्थ है। पर खड़ा होकर हाथ ऊपर उठाकर और पांचरात्र-मतमे दशावतारोंको छोड़ मुँह उत्तरकी ओर करके सांगवेदका हयशिरा नामका और एक विष्णुका | उच्चारण करता है।" "वेदमें इस स्थान- अवतार माना गया है जिसका थोड़ा सा को सद्भुतोत्पादक कहते हैं ।" दूसरी वृत्तान्त देना आवश्यक है। दशावतार बात, मोक्षगामी पुरुष पहले परमासु-रूप- बहुधा सर्वमान्य हुए हैं । परन्तु हयग्रीव से सूर्यमें मिल जाते हैं; वहाँसे निकल- या हयशिरा अवतार पांचरात्र मतमें ही कर वे अनिरुद्धके रूपमें प्रवेश करते हैं,