से भिन्न मतोंका इतिहास । ® . ५४४ इसके अनन्तर वे सब गुणोंको छोड़ मन-है और स्पष्ट दिखाई देता है कि यह के रूपसे प्रद्युम्नमें प्रवेश करते हैं; वहाँसे भगवद्गीताके धर्मके स्वरूपके अनन्तरका निकलकर जीव या संकर्षणमें जाते हैं। है। इसमें भगवद्गीताका हरिगीताके नाम- तत्पश्चात् उन द्विजश्रेष्ठोंकी सत्व, रज से स्पष्ट उल्लेख है और उसमें यह धर्म और तम तीन गुणोंसे मुक्ति होकर वे पहले संक्षेपतः बतलाया गया है जिसका क्षेत्र परमात्मा वासुदेवके स्वरूपमें वर्णन ३४६ वें अध्यायमें है। पहले बताई मिल जाते हैं। पांचरात्रके मतके अनु-हुई हयग्रीवकी कथा ३४७ वें अध्यायमें सार मोक्षको जानेवाले आत्माकी गतिका है और अन्त में यह कहा है कि-"नारायण वर्णन ऊपर दिया है । वेदान्तके मतसे ही वेदोंका भण्डार है, वही सांख्य, वही यह भिन्न है। परन्तु यह भी दिखाई देता ब्रह्म और वही यश है; तप भी वही है है कि वह भगवद्गीताके वर्णित ब्रह्मपदसे और तपका फल भी नारायणकी प्राप्ति भी भिन्न है। अस्तु । पूर्वाध्यायमें यह है । मोक्षरूपी निवृत्ति लक्षणका धर्म भी बतलाया गया है कि वैकुण्ठ वासुदेव वही है और प्रवृत्ति लक्षणका धर्म भी या परमात्माका नाम है । आश्चर्य इस वही है।" इसके बाद पांचरात्र-मतका बातका होता है कि यहाँ नारायणके | एक विशिष्ट सिद्धान्त यह बताया इमा अलग लोक होनेका वर्णन नहीं है। यह दिखाई देता है कि सृष्टिको सब वस्तएँ सच है कि वैकुण्ठकी गति नारायणके पाँच कारणोंसे उत्पन्न होती हैं। पुरुष, लोककी ही गति है, परन्तु वह यहाँ बत- प्रकृति, स्वभाव, कर्म और दैव ये पाँच लाई नहीं गई । यहाँ इस बातका भी कारण अन्यत्र कहीं नहीं बतलाये हैं। उल्लेख करना आवश्यक है कि वर्तमान भगवद्गीतामें भी नहीं है। ३४८ अभ्याय- वैष्णव-मतमें मोक्षकी कल्पना भी भिन्न है। में सात्वत धर्मका और हाल बतलाया पांचरात्र-मतमें वेदका पूरा पूरा है। कहा है कि यह निष्काम भक्तिका महत्त्व तो दिया ही गया है परन्तु साथ पन्थ है। इसीसे उसे एकान्तिक भी ही वैदिक यज्ञ आदि क्रियाएँ भी उसी कहते हैं । ३४१ वे अध्यायमें भगवद्गीता- तरह मान्य की गई है। हाँ, हम पहले का जो श्लोक निराले ढंगसे लिया है बतला चुके हैं कि यज्ञका अर्थ अहिंसा- वह यह है:- युक्त वैष्णव यश है। आगेके ३४५ वें चतुर्विधा मम जना अध्यायमें यह वर्णन है कि श्राद्ध-क्रिया . भक्ता एव हि मे श्रुतम् । भी यज्ञके समान ही नारायणसे निकली। तेषामेकान्तिनः श्रेष्ठा है, और श्राद्ध में जो तीन पिण्ड दिये ये चैवानन्यदेवताः॥३३॥ जाते हैं वे ये ही हैं जो पहलेपहल नारा- 'शानी मुझे अत्यन्त प्रिय हैं, इस भग- यणने वराह अवतारमें अपने दाँतोंमें लगे वद्गीताके बदले इस श्लोकमें कहा गया हुए मिट्टीके पिण्ड निकालकर स्वतःको है कि अनन्यदेव एकान्ती मुझे अत्यन्त पितररूप समझकर दिये थे। इसका प्रिय हैं। अर्थात् यह वाक्य बादका है। तात्पर्य यह है कि पिण्ड ही पितर हैं, इस बातका वर्णन विस्तारपूर्वक किया और पितरोंको दिये हुए पिण्ड श्रीविष्णु- गया है कि नारायणने यह धर्म ब्रह्मदेव- को ही मिलते हैं। को भिन्न भिन्न सात जन्मोंमें बतलाया इस प्रकार नारायणीय धर्मका स्वरूप तथा अन्य कई लोगोंको बतलाया। सात
पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५७७
दिखावट