पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१०७

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सचिव-युग्म / 103 बैनरमैन बड़े ही स्पष्टवक्ता हैं । जब लिबरल पक्ष का प्रधान मण्डल नियत हुआ और ये मुख्य मंत्री हुए तब चेम्बरलेन साहब ने नये मंत्रियों से यह पूछने का प्रयत्न करना चाहा कि वे प्रतिबद्ध व्यापार के अनुकूल हैं या प्रतिकूल । इस पर प्रधान मंत्री ने साफ कह दिया कि इस विषय को फिर पारलियामेंट में पेश करने की जरूरत नहीं। इस विषय में प्रजा की क्या राय है सो सारे संसार को मालूम हो गई है । रूस की नई पारलिया- मेट डूमा जब बन्द कर दी गई तब इन्होंने बड़े आवेश से पारलियामेंट में कहा -“डूमा मर गई; वह चिरंजीव रहे; उसकी जय हो।" रूस ऐसे बलवान् देश के लिए इस तरह की उक्ति मुंह से निकालना बड़े साहस का काम है। बैनरमैन का कहना सच निकला। डूमा फिर जी उठी है। एक दफ़े बालफ़र साहब ने बोरों को पारलियामेट देने के खिलाफ़ बहुत कुछ कहा और लिबरल दल की निन्दा की। बैनरमैन ने इसका यथेष्ट उत्तर देना चाहा । पर वाल्कर साहब ने अपनी वक्तृता इतनी लम्बी कर दी कि इनको सिर्फ एक मिनट उत्तर देने को मिला। इस एक ही मिनट में इन्होने कहा--"मुझे बोलने के लिए सिर्फ एक मिनट रह गया है । पर इतने ही में मैं यह कहना चाहता है कि जब से मैंने पालिगाम : में कदम रक्खा तब से आज तक ऐमा अयोग्य, ऐमा अनुचित, ऐसा सदोष और ऐसा देशाभिमान-शून्य भाषण मैंने कभी नही सुना" ! बैनरमैन घर के अमीर हैं । इन्हें कोई सात आठ लाख रुपये साल की आमदनी है। परन्तु ये बहुत सीधे सादे स्वभाव के है । ये अच्छे विद्वान है। विद्या का इन्हें व्यसन है। खूब पुस्तकावलोकन करते हैं । फ्रेंच और जर्मन भाषायें ये अच्छी तरह जानते है। इनके यहाँ प्राचीन भाषाओं की पुस्तकों का अच्छा संग्रह है । जॉन माले आज-कल हिन्दुस्तान के कर्ता-धर्ता जान मार्ले ही हैं । 'सेक्रेटरी आव स्टेट फ़ार इंडिया' यही हैं। इस देश से सम्बन्ध रखने वाली बातों में इनकी शक्ति अपार है । इनके पहले ब्राडरिक साहब इस पद पर थे । इतने बड़े लार्ड कर्जन को उन्हीं के कारण लाटपन छोड़ कर विलायत लौट जाना पड़ा । इतने ही से भारत-सचिव की प्रभुता का अन्दाज हो सकता है। इनका जन्म इंगलण्ड के ब्लाकबर्न नगर मे, 1838 ईसवी में, हुआ था। कैम्बैल बैनरमैन से ये वर्ष दो वर्ष छोटे हैं। ये आक्सफ़र्ड के बी० ए० हैं। इनकी विद्वत्ता देखकर केम्ब्रिज और ग्लासगो के विश्वविद्यालयों ने इन्हे एल०एल०डी० की पदवी दी है । यह पदवी विरलों ही को मिलती है और बड़ी आद "गीय समझी जाती है । इन्होंने कितने ही दैनिक और मासिक पत्रों की सम्पादकता की है। विद्याव्यासंग का इन्हें बड़ा चसका है । लिखने पढ़ने से इन्हें अत्यधिक प्रेम है । पुस्तकें और लेख का तो इन्हें रोग सा हो गया है । कुछ न कुछ लिखा ही करते हैं। बर्क, कामव्यल, रूसो और काबडन के चरित इन्होंने लिखे हैं । उनका बड़ा आदर है । ग्लाङस्टन साहब का तो इतना अच्छा चरित इन्होंने लिखा है कि उसकी बराबरी का एक भी चरित अंगरेजी भाषा में नहीं