पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/११३

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हेग का राष्ट्रीय न्यायालय भुजबल की अपेक्षा ज्ञानबल का माहात्म्य अधिक है। मनुष्य जैसे जैसे सज्ञान होना है तैसे तैसे ज्ञानबल का महत्त्व अधिकाधिक उसकी समझ में आता जाता है। जैसे जैसे ज्ञान बढ़ता है तैसे ही तैसे बल की महत्ता कम होती जाती है। छोटे छोटे लड़के थोड़ी थोड़ी बात के लिए मारपीट करने पर उतारू हो जाते है; परन्तु समझदार आदमी बड़े बड़े कामों से सम्बन्ध रखने वाले झगड़े भी युक्तिपुर्ण बातो, संभाषणों और तर्कनाओ से शान्ततापूर्वक निपटा लेते है । संसार का इतिहास देखने से मालूम होता है कि असभ्य जगली आदमियो में थोड़ी भी सारासार विचार-बुद्धि आते ही व अपने आपस के झगड़े पंचायत के द्वारा तै करने लगते हैं । यही पंचायतें धीरे धीरे अधिक प्रशस्त होकर मुसिफ, मदरआला, गज, सेशन जज और हाई कोर्ट के न्यायालयों का रूप धारण करती हैं । इन सब कोटों में ज्ञानबल ही का प्राधान्य है । यही हाल देशों किंवा बड़े बड़े राज्यो का है । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि राष्ट्रों से सम्बन्ध रखने वाले विवादास्पद विषय विशेष महत्त्व के होते हैं । साधारण मनुष्यों के झगड़ों की अपेक्षा राज्यो, देशों, अथवा बादशाहों के झगड़ों का रूप अधिक विशाल होता है। जैसे अनेक व्यावहारिक बातों में लोग आपस में झगड़ा करते हैं वैसे ही राजों के बीच भी आपस में कभी कभी झगड़ा उठ खड़ा होता है । ये झगड़े यदा कदा बड़ा ही विकराल रूप धारण करते हैं । यहाँ तक कि इनके कारण बड़े बड़े युद्ध हो जाते हैं और हजारों मनुष्यों के रक्त की नदियां बह निकलती हैं । इन युद्धों की तैयारी के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं । अकेले 1909 ईसवी में, सेना और लड़ाकू जहाजों के लिए इंगलैंड ने 7,00,00,000 पौंड, जर्मनी ने 5,80,00,000 पौड और अमेरिका ने 97,00,000 पौंड ख़र्च किया । एक पौंड 15 रुपये का होता है, यह पाठक जानते ही होंगे । यही रुपया यदि विद्या या विज्ञान की वृद्धि के लिए खर्च किया जाता तो कितना लाभ होता ! सज्ञान मनुष्य को ऐसे कामों के लिए इतना रुपया फूंक तापना शोभा नहीं देता । इस प्रकार रुपये का उड़ाया जाना देश की अभिवृद्धि के लिए बहुत ही विघ्नकारक है । यह देखकर योरप के विद्वान्, विचारशील और दयालु लोगों ने यह सोचा कि इस प्रकार के अत्याचार की रीति बन्द करके देश देश में शान्ति- वर्द्धक सभायें स्थापित करनी चाहिए । उनके अधिवेशन कराना चाहिए, उनके सभासदों के द्वारा व्याख्यान दिलवाना चाहिए और राजगडधारी पुरुषों का चित्त इस विषय की ओर आकृष्ट करना चाहिए। इस तरह लन्दन, बर्न, ब्रुसल्स, बुडापेस्ट, क्रिश्चियानिया, वीना इत्यादि नगरों में इस विषय से सम्बन्ध रखनेवाली बातों पर खूब विचार किया गया। प्रसंगोपात्त गिरजाघरों में भी इसी विषय के उपदेश होने लगे। इस उद्योग का यथारीति आरम्भ जर्मनी, फ्रांस, इटली, रूस, आस्ट्रिया-हंगरी, जापान, ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका की स्वतंत्र