पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१४१

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विलायत में उपाधियों का क्रय-विक्रय वर्तमान काल वाणिज्य-काल है । तरह तरह के वणिज-व्यापार से लोग रुपया कमाते हैं। संमार में ऐसी वस्तुओं की संख्या बहुत ही थोड़ी है जो रूपये मे प्राप्त नहीं की जा सकतीं। जो चीजें रूपये से अप्राप्य समझी जाती है, उनमें मे भी बहुत मी रुपये द्वारा, किमी न किसी तरह, प्राप्त हो जाती हैं। किसे विश्वाम हो सकता है कि उपाधि जमी श्रेष्ठ और मम्मान-सूचक वस्तु भी रुपये द्वारा घर बैठे प्राप्त की जा सकती है । सभ्य गष्ट अपनी प्रजा में से ऐसे ही जनों को उपाधियाँ प्रदान करते हैं जिन्होंने यथार्थ में देश या गष्ट्र की अच्छी सेवा की हो, अथवा विद्वत्ता और औदार्य आदि के उच्च आदर्श दिखाये हो । परन्तु ऐमी बहुमान-व्यंजक, उपाधियो का अब क्रय-विक्रय भी होने लगा है । मभ्य-शिरोमणि इंगलैड देश ही में आजकल उपाधियों का बाजार लगा है। 'पियर्सन्स मैगेजीन 'नामक एक मासिक पत्र में इस पर एक लेख निकला है । कोई पचास वर्ष से इंगलैंड में उपाधियों का क्रय-विक्रय होने लगा है । इसी से इंगलैंड में उपाधिधारियों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है । क्रय-विक्रय का काम बड़ी ही गुप्त रीति से होता है। किसी को कानोकान खबर नहीं होने पाती । इंगलैंड में लिबरल और कानमर्वेटिव नाम के दो बड़े राजनैतिक दल हैं। इन्हों दोनो दलों के हाथ में घूम फिर कर इंगलैड का शासन-मूत्र प्रायः रहता है । ये दोनो दल अपना अपना बल बढ़ाने का सदा यत्न किया करते हैं। इस काम के लिए इन्हे धन की आवश्यकता पड़ती है। इनके अनुयायी चन्दा करके धन बटोरते है और अपने अपने पक्ष के खर्च के लिए संचित करते रहते है। इन दोनों पक्षों के ऐसे आय-व्यय का हिसाब गुप्त किया जाता है। वह कभी प्रकाशित नहीं किया जाता और न कोई उसे कभी देख मक्ता है । परन्तु इममे सन्देह नहीं कि दोनों दलो का कोग बूब भग-पग रहता है । संमार की शायद ही कोई जाति पूरी उदार कही जा सकती हो । मनुष्य ऐसे ही ईश्वर की मन्तति है । पर उममे नीच और उच्च के भेद की प्रथा सब जगह, और मब जातियो मे किसी न किसी रूप मे, जवश्य है। सबको बराबर समझने की डीग हॉकने वाली जातियां भी संकीर्णता की दलदल मे फॅमी हुई है । अमेरिका स्वतन्त्र है । और वहाँ वाले उदार-हृदय कहलाते है । परन्तु जब काले-गोरे का प्रस्न उठता है, तब वहाँ के गोरों की उदारता प्रायः हवा खाने चली जाती है। परन्तु हाँ. इसमें मन्देह नहीं कि कही का समाज घोर अन्धकार मे ठोकरें खा रहा है और वही का आगे बढ़ा हुआ है । अँगरेज़ी समाज में भी कम त्रुटियाँ नही है । वहाँ भी कुलीनता का थोड़ा बहुत राग अवश्य अलापा जाता है । भारत के कुलीन ब्रह्मा जी के द्वारा गढ़े जाते है। परन्तु कुलीन अँगरेज़ संसार ही में निर्मित किये जाते हैं । निम्न श्रेणी में उत्पन्न हुए ग्रेट ब्रिटेनवासी थोड़ा ही ऐश्वर्य पाने पर मध्यम श्रेणियो में और उच्च श्रेणी वाले उच्चतम श्रेणी में कूद जाने की