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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१४२

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138 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली अभिलाषा रखते हैं। उनके लिए और अनेक उपाय तो हैं ही, परन्तु एक उपाय यह भी है कि दो में से किसी एक राजनैतिक दल का पक्ष ग्रहण करके और उसके गुप्त कोश में गुप्तदान देकर कोई न कोई उपाधि प्राप्त कर लें। दान सीधे किसी के हाथ में नहीं दिया जाता-कितने ही हाथों से होकर वह ठिकाने पहुंचता है। दान देने और लेने वाले का कभी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता। सारा काम एक मध्यस्थ कर देता है । जितना बड़ा दान होता है, उतना ही फल भी उससे प्राप्त होता है। पन्द्रह हजार पौड देने से नाइट तीस हजार देने से बेरोनेट और एक लाख देने से लार्ड की पदवी प्राप्त हो सकती है। जो व्यक्ति मध्यस्थ का काम करता है, उसे दलाली मिलती है । दान की रक़म कई किस्तों में अदा की जा सकती है; परन्तु दान-दाता को यह बात किसी तरह मालूम नही होने पाती कि दान की रक़म किस तरह खर्च की जाती है । उपाधि पाने के पूर्व ही रकम का बड़ा भाग दे देना पड़ता है; क्योंकि एक दो दफ़े ऐसा भी हुआ है कि लोगों ने उपाधियाँ पाकर रक़म देने मे इनकार कर दिया। उपाधि-लोलुप लोग ऐसा भी करते है कि जब उन्हें एक दल उपाधि दिलाने में देर, या किसी कारण से टाल-टूल करता है, तब वे दूसरे दल का आश्रय ग्रहण करते हैं। गत दस वर्षों में 96 नये लार्ड बनाये गये। इनमें से 49 को उनकी जाति और देश-सेवा के लिए यह पदवी मिली; परन्तु सुनते हैं कि शेष ने रुपये देकर ही इस गौरव- सूचक पदवी को खरीदा । किसी समय सर राबर्ट पील इंगलैंड के महामन्त्री थे। उनके शासन-काल के पाँच वर्षों में केवल पाँच आदमियों को लार्ड की पदवी मिली । परन्तु, इस समय, लार्ड की उपाधि का वितरण फ़ी महीने एक के हिसाब से हो रहा है। उसमें भी इन नये लार्डों में ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है जिन्होंने रुपये ही के बल से पदवी पाई है । जेम्स डगलस नाम के एक महाशय ने 'पियर्सन्स मैगेज़ीन' में ऐसी ही बातें लिखी उपाधि देते हैं सम्राट्, परन्तु दिलाते हैं महामन्त्री और मन्त्रि-मण्डल । इममें सन्देह नहीं कि उपाधियो के क्रय-विक्रय की बात महामन्त्री को मालूम रहती है । लार्ड रोजवरी इंगलैंड के महा-मन्त्री थे। वे इस गुप्त क्रय-विक्रय से वडे दुःखी रहते थे । यदि वे प्रबन्न करते तो कदाचित् इस प्रथा को बन्द भी कग देते, परन्तु यथार्थ में महा-मन्त्री लोग इस प्रथा के रोकने मे असमर्थ से है। इस कुप्रथा का मिटाना स्वयं अपने ही पैगे पर कुठार चलाना है; क्योकि जब उपाधियो के लालच से अपनी थैलियों का मुंह खोल देने वाले धनवान लोग गजनैतिक दलों को दान देना बन्द कर देगे, तब, आर्थिक दशा ठीक न होने के कारण, इन दलों का बल बहुत कम हो जायगा और सदा एक दूसरे के जल्दी- जल्दी पतन का भय लगा रहेगा । हाँ, प्रत्येक दल अपने अपने अनुयायियों से भी चंदा बटोर कर धन एकत्र कर सकता है; परन्तु यह काम घोर चढ़ा-ऊपरी और परिश्रम का है, और इस तरह बहुत ही थोड़ा रुपया मिल सकता है। जब तक आराम से बैठे-बैठे रुपयों की ढेरी मिलती जाय, तब तक परिश्रम करके भी थोड़ा ही रुपया पाना किसे पसन्द हो सकता है ? उपाधि के विषय में प्रजा चूं तक नही कर सकती। किसी को उपाधि मिलने पर वह नाराज़ या खुश चाहे जितना हो ले, पर उसे यह बात जानने का कोई