कावागुची की तिब्बत-यात्रा / 153 11 मौत पर अफ़सोस करना व्यर्थ है । मेरी हार्दिक कामना यही है कि इस देश मे बौद्धमत की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहे।' सेंगचेन के मर जाने पर उनके सारे अंग, तिब्बत देश की प्राचीन प्रथा के अनुसार, शरीर से काट काट कर जल में फेंक दिये गये। इस पर कावागुची ने लिखा । "जब मैंने इस महापुरुप की मृत्यु-कथा पहले पहल दाजिलिंग में सुनी तब मेरे शरीर पर गेमांच हो आया--मेग कलेजा कांप उठा । क्योकि मैं भी तो उसी तिब्बत को जा रहा था। कौन कह सकता था कि मेरी भी यही दशा न होगी ?" इन घटनाओं से तिब्बत-सरकार और भी सजग हो गई। इस बात की मस्त ताकीद कर दी गई कि कोई भी विदेशी राज्य के भीतर न आने पावे । देश का द्वार बन्द रखने में ही निब्बत-मरकार ने अपना भला समझा। कावागुची ने लिखा है कि उन्हें अपनी यात्रा में ऐसा कोई भी गाँव या नगर न मिला जहाँ के लोग शरच्चन्द्र के तिब्बत में आने की बात न जानते थे। बच्चों तक को उनका नाम मालूम था । कावागुची की यात्रा का वर्णन बहुत ही मनोरंजक और महत्वपूर्ण है। उनकी यात्रा-विषयक पुस्तक 'तिब्बत में तीन वर्ष' के नाम से छप कर प्रकाशित हुई है। आपका पूरा नाम है, यकाई कावागुची । आप जापानी हैं । बहुत दिन तक आपने काशी में संस्कृत भाषा का अध्ययन किया | आपने अपने तिब्बत जाने का कारण इस प्रकार बताया है- "मैं टोकिओ नगर के एक प्रसिद्ध बौद्ध मठ का मुख्य पुजारी था। किन्तु 1891 ईसवी में मैंने यह पद त्याग दिया और एक दूसरे स्थान मे जाकर चीनी भाषा मे छपे हुए अपने धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन करने लगा। मेरी इच्छा हुई कि मैं इन पुस्तको का अनुवाद जापानी भाषा मे करूं। किन्तु ऐमा करने के पहले मैंने संस्कृत तथा तिब्बती भाषा में लिखे गये मूलग्रन्थों मे उनका मिलान करना नितान्त आवश्यक समझा । ये मुलग्रन्थ नेपाल तथा तिब्बत ही में प्राप्त मकने थे। पर तिब्बत जाना कठिन काम था । फिर भी मैं तिब्बत मे भ्रमण करने के लिए. 1897 में, रवाना हुआ और तीन बग्म तक वहाँ रह कर, 1903 में, सकुशल अपने देश को लौट आया' । 1897 की 25 जून को कावागुची जापान से रवाना हुए। 25 जुलाई को आप कलकत्ते पहुँचे । वहाँ की महाबोधी सोसायटी से आपको शच्चन्द्र की यात्रा का हाल मालूम हुआ । कावागुची ने दार्जािलग जाकर शत् वाव से भेट की: उन्हें अपना अभिप्राय कह सुनाया। शत् बाबू इन्हे देख कर बहुत प्रसन्न हुए। किन्तु उन्होने इन्हें तिब्बत-यात्रा करने की राय न दी। उन्होने बहुत समझाया कि निवती भाषा का अध्ययन करके आप अपने देश को चले जाइए । किन्तु कावागुची को उनका विचार पसन्द न आया। आपने दार्जािलग में एक बरस तक रहकर वहाँ के बौद्ध लामाओं से तिब्बती भाषा पढ़ी। उसमें आप व्युत्पन्न हो गये। तब उन्होंने सोचा कि तिब्बत किस मार्ग से जाना चाहिए। कावागुची ने जान लिया था कि दाजिलिग से तिब्बत जाने का एक भी मार्ग उनके लिए ख़तरे से खाली नहीं । अन्त में आपने नेपाल-मार्ग से जाना ही
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