पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१५८

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154 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली युक्तिसंगत समझा। पर इसमें भी एक कठिनता थी। दार्जिलिंग में बहुत से तिब्बती जान गये थे कि कावागुची उनके देश में जाने की इच्छा से ही उनकी भाषा का अध्ययन कर रहे हैं । अतएव सम्भव था कि कोई तिब्बती धन पाने की इच्छा से तिब्बत-सरकार को इस बात की ख़बर दे देता। इसी से कावागुची ने सर्वत्र प्रकट कर दिया कि वे अब सीधे अपने देश को लौट जायँगे; कुछ कारणों से उन्होंने तिब्बत जाने का विचार छोड़ दिया है। लोगों को उनकी इस बात पर विश्वास आ गया। कावागुची भी वहाँ से विदा होकर कलकत्ते चले आये। कावागुची ने शरच्चन्द्र से असली बात कह दी थी। उनके वियोग से शरच्चन्द्र को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि कावागुची की यात्रा निर्विघ्न समाप्त हो । कावागुची कलकत्ते में कुछ दिनों तक रह कर नेपाल के लिए रवाना हो गये। मगौली में आपकी भेंट बुद्धवज्र नाम के एक लामा से हुई। बुद्धवज्र से आपने अपने को चीन देश का वासी बताया। वे इन्हे अपने मकान पर गये और इनका बहुत आदर-सत्कार किया। बुद्धवज्र नेपाल के एक प्रसिद्ध बौद्ध मठ के लामा थे। इस मठ में प्रत्येक वर्ष हजारों लोग, जाड़े के दिनों में, तिब्बत से तीर्थ यात्रा करने आया करते हैं। इन यात्रियों में गरीव भिक्षुकों की संख्या ही अधिक रहती है। इन्हें देख कर कावागुची ने सोचा कि तिब्बत से आते समय ये लोग मरकारी फाटकों या घाटियों पर कोई 'पाम' दिखाते हैं या नहीं। यदि दिखाते हैं तो अर्थहीन होने पर भी इन्हे लालची अफ़सगे से 'पाम' कैसे मिल जाते हैं । क्योंकि घाटियो के राज-कर्मचारियो की आँखो में धूल झोंक कर निकल आना असम्भव है। कावागुची ने इन भिक्षुकों को अपनाना शुरू किया। इन लोगों की कभी कभी आर्थिक सहायता भी करने लगे। नतीजा यह हुआ कि कुछ दिन बाद इन भिक्षकों ने उनको एक ऐसी राह बताई जो यात्रियों को नियमित फाटको या घाटियो पर लाय बिना ही तिब्बत के भीतर पहुँचा सकती है। यह राह काठमाडू से उत्तर-पश्चिम की ओर जाकर, लो-नामक नेपाली प्रान्त को पार करती हुई, मानसरोवर झील तक जाती है। इम पर कावागुची को बड़ी खुशी हुई। यात्रा का सारा सामान ठीक करके एक दिन कावागुची ने अपने मित्र बुद्धवज्र से कहा-"महाशय ! मैं यहाँ से लासा और लामा से अपने देश चीन जाने का विचार करता हूँ। मुझे यहाँ से उत्तर-पूर्व की ओर जाने वाले मार्ग से लामा जाना चाहिए। किन्तु तिब्बत जाकर मानसरोवर झील और कैलाश पर्वत का दर्शन करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। अस्तु, मैं उत्तर-पश्चिम की ओर जाने वाले मार्ग मे ही जाऊँगा।" बुद्ध वज्र यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने तीन अन्य यात्रियो को भी इनके साथ कर दिया। इन्हें कुछ दूर के लिए एक पथ-प्रदर्शक भी मिल गया। 1899 के मार्च महीने में सबके सब काठमांडू से बिदा हुए। कुछ दिनों बाद ये लोग पोखरा नामक नगर में पहुँचे। वहाँ से तुजे नगर को गये । कावागुची ने वहां पर अपने साथियों को छोड़ दिया। क्योकि उनमें से किमी का भी स्वभाव इन्हें पसन्द न था।