कावागुची की तिब्बत-यात्रा/ 155 इसी स्थान में कावागुची की भेंट एक और लामा से हुई । वह इनका मित्र हो गया और इन्हें सारंग-प्रदेश में, जहां उसका घर था, बड़ी खुशी से ले गया। कावागुची सारंग-प्रदेश में कोई एक बरम तक रह गये । वहाँ से आगे बढ़ना असम्भव समझ कर उन्हें तुजे नगर के निकटवर्ती मल्बा ग्राम तक पीछे लौटना पड़ा। सारंग में कावागुची को बौद्ध धर्म-सम्बन्धी कितने ही हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त हो चुके थे। उन सबको साथ लेकर वे 1900 की बारहवी जून को मल्बा से चल पड़े। वहाँ से आपको कालीगंगा नामक नदी के किनारे किनारे चलना पड़ा। तीसरी जुलाई को आप धवलगिरि के उत्तरी भाग में पहुंचे। यहीं नेपाल-राज्य की मीमा का अन्त हो गया और तिब्बत देश की सीमा का प्रारम्भ हुआ। चौथी जुलाई को कावागुची को तिब्बत के भीतर, एक निर्जन मैदान में, अकेले जाना पड़ा। भूख और प्यास से वे बेचैन हो गये। उनका मारा शरीर थकावट से चूर चूर हो गया। फिर भी उन्होंने अपनी तकलीफ़ों की कुछ मी परवा न की। वे उन्हें भूल से गये। उन्होंने स्वयं लिखा है-"मेरे हर्ष और मेरी आशा का आज कोई पारावार न था : मैंने अपनी गठरी अपनी पीठ से उतार कर एक चट्टान पर रख दी। मुझे भूख बड़े कड़ाके की लग रही थी। मैंने मक्खन, बर्फ और भुने हुए आटे का कुछ संमिश्रण तैयार किया। उसी को नमक तथा मिर्च के साथ बडे आनन्द से मैं खाने लगा। उस समय मैंने सोचा कि स्वर्गलोक के देवताओ को भी ऐसे स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति असम्भव होगी।" अम्तु। अगस्त को कावागुची मानमरोवर के पास पहुँचे । वहाँ आपको बहुत से नेपाली ब्राह्मण मिले। ये लोग मानसरोवर में स्नान करने आये थे। मानसरोवर की परिधि कोई 200 मील है । वह समुद्र-तल से करीब 15,501) फट ऊँचा है। वह एक अप्टकोणाकृति झील है। देखने में कमलपुष्प के समान जान पड़ती है। कावागुची की शिकायत है कि आज तक पाश्चात्य लोगो ने इसके जितने नक़शे तैयार किये है उनमे से एक भी ठीक नही। मानसरोवर से कावागुची कैलाश पर्वत की ओर चले । वह इम झील से उत्तर- पश्चिम की ओर है। "कैलाश पर्वत के उत्तरी भाग को तिब्बत की भाषा मे कुबेर पुरी कहते है । प्राचीन काल में हिन्दू लोग इस स्थान से पूरी तरह परिचित थे। कालिदास ने भी 'मेघदूत' में इसका अच्छा वर्णन किया है। इसके आस पास बौद्ध मठो की सख्या बहुत अधिक है । इनमें से एक मठ मे मैने देखा कि सैकड़ो धर्म-ग्रन्थ, बुद्ध अमिताभ की मूर्ति के सामने, रक्खे हुए है । किन्तु उनका उपयोग करना तो दूर रहा, पुजारी लोग उनकी कभी कभी बड़ी ही दुर्दशा करते है । कैलाश पर्वत के पास एक 'सुवर्ण-उपत्यका' है। इसका प्राकृतिक सौन्दर्य देवते ही बनता है । इसके चारों ओर विशाल पर्वत है । यहाँ के जल-प्रपातो की शोभा देखकर मुझे बहुत आनन्द हुआ। जमीन पर बैठ कर उन्ही की ओर मैं एकटक देखता रह गया। चैतन्य-लाभ करने पर फिर आगे बढ़ा ( "
पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१५९
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