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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१८८

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जापान और भारत में शिक्षा का तारतम्य 'इण्डियन सोशल रिफ़ार्मर' नामक पत्र में एक लेख शिक्षा-प्रचार-विषयक प्रकाशित हुआ है। उसमें यह दिखाया गया है कि जापान और भारत में शिक्षा की क्या दशा है । इन दोनो देशों में शिक्षा-प्रचार का तारतम्य देखकर इस बात पर अफ़सोस-बहुत अफ़मोस होता है कि जापान के मुकाबले में भारतवर्ष अत्यन्त ही पिछड़ा हुआ है। जिस जापान में नई सभ्यता की जागृति हुए अभी 80 बर्ष भी नही हुए, वहीं जापान इम विषय में हजारों वर्ष के सभ्य और शिक्षित भारतवर्ष से बाजी मार ले जाय, यह इस देश का परम दुर्भाग्य ही समझना चाहिये । इसका दोष हम नही जानते, किस पर मढ़ें-अपने दुर्दैव पर या उस शासन पर जिसका कर्तव्य इस देश में शिक्षा-प्रचार करना है और जो कोई डेढ सौ वर्ष से यहाँ अपना पराक्रम प्रकट कर रहा है । भारत का जो अंश अँगरेजी गवर्नमेंट के अधीन है उमकी जनसख्या 24 करोड़ 70 लाख है और जापान की सिर्फ 6 करोड़ 2 लाख । अर्थात् जापान की अपेक्षा भारत की आबादी चौगुनी से भी अधिक है। यदि स्कूल जाने योग्य उम्र के बच्चो की माया फ़ी सदी 42 मान ली जाय तो भारत में ऐसे बच्चो की संख्या 3 करोड़ 7 लाख और जापान में 90 लाख होती है। अब आप यह देखिये कि इन दोनों देशो में मदरसे, मकतव, स्कूल और कालेज कितने हैं। इनमे आप विश्वविद्यालयों को भी शामिल समझिये। इन सब प्रकार के शिक्षालयों की संख्या भारत में तो 2,28,229 है, और जापान में केवल 44,355 । इसका यह अर्थ हुआ कि जापान की अपेक्षा भारत में शिक्षा के माधन पाँच गुने अधिक हैं । इन बातो को ध्यान मे रखकर आप यह देखिये कि इन शिक्षालयो में, दोनो देशो में; कितने छात्र शिक्षा पाते है । भारत में इनकी संख्या केवल 98 लाख, पर जापान मे 1 करोड 10 लाख है । देखा आपने | भारत की आबादी जापान से चौगुनी और शिक्षालय वहाँ की अपेक्षा पँचाने है । पर यहाँ के मुकाबले में जापान में कोई दस लाख बच्चे अधिक शिक्षा पा रहे हैं। जिन बच्चों की उम्र स्कूल जाने योग्य है उनमें से जो बच्चे यहा सब तरह के स्कूलो में शिक्षा पा रहे है उनका औसत आबादी के लेहाज से फी मदी 4 मे भी कम है । परन्तु जापान में वही 19 फ़ी सदी है। इससे यह मूचित हुआ कि भारत में जहां 15 बच्चो को स्कूल जाना चाहिये था वहाँ केवल 4 जाते हैं और बाकी के 11 या तो मवेशी चराते या गिल्ली-डडा खेला करते है । इस दशा में यहाँ मूर्खता और निरक्षरता का साम्राज्य न छाया रहे तो कहाँ रहे। शिक्षा ही सारे सुखों और सारे मुधागे की जड़ है । पर राजा का न सही भगवान का उसी ओर दुर्लक्ष्य है । हाय रे दुर्दैव ! भारत में अर्थकरी शिक्षा की ओर बहुत ही कम ध्यान दिया जाता है। यहां की शिक्षा की बदौलत क्लर्क, मुहरिर, लेखक, स्कूल मास्टर ही अधिकतर पैदा होते हैं और