जापान और भारत में शिक्षा का तारतम्य /185 सारी उम्र कलम घिसते-घिसते बिता देते हैं । उच्च शिक्षा पाये हुए युवक बहुत हुआ तो, वकील बनकर अदालतों की शोभा बढ़ाते और दीन-दुखियों का धन स्वाहा कराने में सहायक होते हैं। फिर भी सबको काम नहीं मिलता। 30 रुपये की जगह खाली होने का यदि कोई विज्ञापन निकलता है तो हज़ारों युवक टिड्डी-दल की तरह विज्ञापनदाता के ऊपर टूट पड़ते हैं। जापान में यह दुर्गति नहीं । वहाँ अर्थकरी शिक्षा देने की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। जापान के प्रारम्भिक मदरसों में जितने विद्यार्थी शिक्षा पाते है उनसे कुछ ही कम अर्थकरी शिक्षा देने वाले शिक्षालयों में पाते हैं । ये शिक्षालय अनेक प्रकार के हैं। उनमें भिन्न-भिन्न प्रकार की ऐमी शिक्षा दी जाती है जिसकी कृपा से लड़के और लड़कियाँ स्कूल छोड़ते ही चार पैसे पैदा करने लगती हैं । ध्यान इस बात का रक्खा जाता है कि स्कूल से निकलने पर कोई लड़का या लडकी बेकार न रहे; वह कुछ-न-कुछ काम कर सके, वह किसी पर भारभूत होकर देश की दरिद्रता न बढावे । जिन स्कूलो मे इस तरह की अर्थकरी शिक्षा दी जाती है उनमें साथ ही, साधारण शिक्षा-अर्थात् लिखने, पढने, हिसाब, भूगोल, इतिहास आदि की भी शिक्षा-दी जाती है। जापान में इस तरह के स्कूलों का बहुत आधिक्य है। वहाँ के निवासी इन स्कूलों से लाभ भी बहुत उठाते हैं। वे इनका महत्त्व समझते है । अतएव मध्यवित्त के प्रायः सभी लोग अपने बच्चों को इन स्कूलो मे पढ़ने भेजते है । नतीजा यह हुआ है कि पिछले दस ही वर्षों में इन स्कूलों की संख्या दूनी हो गयी है । परन्तु भारत का यह हाल है कि प्रारम्भिक मदरसों के बाद केवल वे स्कूल हैं जिन्हें मिडिल स्कूल कहते है। उनमें भी प्रायः उसी तरह की शिक्षा दी जाती है, जिस तरह की प्रारम्भिक मदरमो में दी जाती है। जो बच्चे प्रारम्भिक मदरमों की शिक्षा समाप्त कर चुकते हैं उनमें से फी मदी 10 से अधिक बच्चे इन मिडिल मदरसों में नही जाते । फल यह होता है कि उनमे से 90 फी सदी घर ही बैठे रहते हैं और देश तथा अपने कुटुम्ब की अर्थहीनता की वृद्धि करते है । यदि भारत में भी इस तरह के स्कूल खुल जाते तो जो बच्चे प्रारम्भिक मदरसे छोड़कर घर बैठे रहते है उनमे से बहुतेरे इन स्कूलो मे भरती होकर चार पैसे पैदा करने योग्य अवश्य हो जाते । अब ज़रा शिक्षा-सम्बन्धी खर्च का हिसाव भी देख लीजिये । अपने देश अभागे भारत की, गवर्नमेंट सब प्रकार की शिक्षा के लिए साल में कुछ ही कम 10 करोड रुपया खर्च करती है अर्थात् आबादी के लेहाज़ से फी आदमी कोई 6 आने खर्च करके सरकार भारतवासियो को शिक्षा देती है। अच्छा तो इन्ही भारतवामियो से करके रूप में सरकार को साल मे क्या मिलता है। जनावे आली, उसे उनसे 2 अरब 22 करोड़ रुपये से कम नहीं मिलता। अर्थात् हम लोगो से इतना रुपया वसूल करके उसमे से फ़ी मदी पांच ही रुपया वह मुश्किल से हमारी शिक्षा के लिये खर्च करती है । बाकी रुपया यह फ़ौज, रेल, जहाज और नौकर-चाकरों की तनख्वाह में उड़ा देती है । जापान में यह बात नहीं। वहां की गवर्नमेंट को रियाया से कर के रूप में जितना रुपया मिलता है उसका फ़ी सदी 15 वह शिक्षा प्रचार के काम में खर्च कर देती है । उसका यह खर्च भारत के ख़र्च से तिगुना है। इसीलिए हमारे देश की गवर्नमेंट पर कोई-कोई यह
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