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186/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली लांछन लगाते हैं कि वह हमें शिक्षित बनाने में जान-बूझकर आना-कानी या शिथिलता कर रही है । यह ठीक हो या न हो, पर इसमें सन्देह नही कि जापान के मुकाबले में यहाँ शिक्षा के लिए बहुत कम खर्च किया जाता है। उसकी प्रचार-वृद्धि की यथेष्ट चेष्टा नहीं की जाती । भारत में जहाँ शिक्षा का ख़र्च फ़ी आदमी आठ आने भी नहीं, वहाँ जापान में आठ रुपया है। एक बात और भी है । वह यह कि भारत में छात्रों की फ़ीस दिन-पर-दिन बढ़ती ही जाती है । पर जापान में वह दिन-पर-दिन कम होती जाती है । शिक्षा ही से मनुष्य-जन्म सार्थक होता है। उसी से मनुष्य अपनी सब प्रकार की उन्नति कर सकता । उसी की दुरवस्था देख किस समझदार रतवा परमावधि का परिताप न होगा। [जनवरी, 1927 में प्रकाशित । 'लेखांजलि' में संकलित।]