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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२१२

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208 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली हाफ़िज़ को अपनी जन्म-भूमि शीराज से बड़ा स्नेह था। उसने उसकी बहुत प्रशंसा की है । उसे एकांतवास अधिक पसंद था। साहित्य-प्रेम उसमें विलक्षण था । एकांत में पुस्तकावलोकन और कविता- निर्माण में ही वह अधिकतर अपना समय व्यतीत करता था । शीराज, यज्द, किरमान और इस्फ़हान के अधिकारी-शाह शुजा और शाह मंसूर का वह विशेष कृपा-पात्र था। 1393 ईसवी में तैमूर ने शीराज़ पर चढ़ाई करके उसे अपने अधिकार में कर लिया। इस लड़ाई में हाफ़िज़ के पृष्ठ-पोषक पूर्वोक्त शाहद्वय की हार हुई । उस समय, सुनते है, हाफ़िज़ शीराज़ ही में था । हाफ़िज़ ने, एक पद्य में, अपने बहुत प्यारे शीराजी तुर्क के कपोल के ऊपर के तिल के लिए समरकंद और बुख़ारा नाम के दो प्रसिद्ध शहर दे डालने की उक्ति कही थी । वह पद्य ऐसा है- अक्षरांतर अगर आं तुर्क शीराज़ी बदस्त आरद दिले मारा। बखाले हिंदवश बख्शम् समरकंदों बुख़ारा रा॥ ये दोनों शहर तैमूर के थे । तैमूर ने हाफ़िज़ का यह पद्य पढ़ा था । अतएव उसने हाफ़िज़ को अपने सम्मुख लाए जाने का हुक्म दिया। हाफ़िज़ लाया गया । उसे देखकर तैमूर ने पूछा- "क्या तू वही शख्स है, जिसने मेरे दो मशहर शहर एक तुर्क के तिल पर दे डालने का साहस किया है ?" हाफ़िज ने इस प्रश्न का उत्तर बड़ी ही नम्रता से दिया। उमने कहा-"जहाँपनाह ! ऐसी ही उदारताओ ने तो मुझे इस दरिद्रावस्था को पहुंचा दिया कि इस समय मैं आपकी दया का भिखारी होने आया हूँ।" यह उत्तर सुनकर हाफ़िज़ की प्रत्युत्पन्न-मति पर तैमूर बहुत प्रसन्न हुआ और उसे पारितोषिक देकर सम्मानपूर्वक विदा किया। यह वात कहाँ तक सच है, नहीं कह सकते; क्योंकि तैमूर के द्वारा शीराज लिए जाने के पहले ही हाफ़िज़ की मृत्यु हो चुकी थी। थोड़ी ही उम्र से हाफ़िज़ ने कविता और दर्शन-शास्त्र में अभ्यास आरंभ किया और शीघ्र ही इन शास्त्रों में वह पारदर्शी हो गया । शेख मुहम्मद अत्तार नाम के प्रसिद्ध फ़कीर से उसने दर्शन-शास्त्र सीखा। कुछ दिनों में हाफिज़ भी इन शेख साहब का अनु- यायी हो गया। उस पर शाह के वजीर हाजी क़यामुद्दीन की बड़ी कृपा थी। उसने विशेष करके हाफ़िज़ ही के लिये एक कॉलेज खोला । उस कालेज में हाफ़िज़ क़ुरान पढ़ाने पर मुक़र्रर हुआ। परंतु हाफ़िज़ का स्वभाव बहुत ही उच्छृखल था । वह मद्यप भी था । उसे बाहरी दिखावा बिलकुल पसंद न था। वह कहता था कि अमीर गरीब दोनों का ईश्वर एक ही है । उसके लिये मसजिद, मंदिर और गिरजाघर तुल्य थे । इसलिये उसके साथी अध्यापकों तथा और-और विद्वानों ने भी हाफ़िज़ के आचरण पर कटाक्ष करना आरंभ किया। हाफ़िज़ से भी मौन नहीं रहा गया। उसने भी अपनी कविता में उन लोगों की खूब दिल्लगी उड़ाई और उनकी अंध-धर्म-भीमता, उनके दांभिक आचरण और उनके मिथ्या विश्वासों पर, मौका हाथ आते ही, बड़े ही मर्म-भेदी व्यंग्य कहे। हाफिज को लोग कुछ-कुछ नास्तिक समझते थे। और-और बातों के सिवा इसका एक कारण यह म ...04