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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२१३

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फ़ारसी-कवि हाफ़िज़ | 209 भी था कि हाफ़िज़ ने मंसूर नाम के पहुंचे हुए फ़क़ीर की प्रशंसा में कविता की थी। यह फ़क़ीर अपने को 'अनल-हक़' (अहं ब्रह्मास्मि) कहता था। बड़ी दुर्दशा करके उसे फाँसी दी गई थी; परंतु अंत तक वह 'अनल-हक़' ही कहता रहा। हाफ़िज़ की कीर्ति बहुत शीघ्र देश-देशांतरों में फैल गई । उसकी मनोमोहिनी कविता का रस-पान करके लोग मत्त होने लगे। अनेक शक्तिशाली बादशाहों और अमीगें ने उसे अच्छे-अच्छे पारितोपिक भेजे । किसी-किसी ने हाफ़िज़ को बड़े प्रेम से अपने यहाँ आने का आवाहन किया । सुनते है, दक्षिण में, बीजापुर के बादशाह महमूदशाह बहमनी ने भी हाफ़िज़ को अपने यहाँ, इस देश में, पधारने के लिये आमंत्रण के माथ जहाज़ भेजा था। इम आमंत्रण को हाफ़िज़ ने स्वीकार भी कर लिया था। यहाँ तक कि हिंदोस्तान को आने के लिए वह शीराज़ से चल भी दिया; परंतु मामुद्रिक सफ़र में उसे कुछ कष्ट हुआ। इसलिए कुछ दूर आकर वह शीगज़ को लौट गया। उम समय बंगाल के मुमलमान सूबेदार ने भी, सुनते है, उसे बुलाया था; परंतु उसने आदर-पूर्वक इस निमंत्रण को भी अस्वीकार कर दिया । यज्द के अधिकारी यहिया इब्न मुज़फ़्फ़र के बहुत कहने- सुनने पर, एक बार हाफ़िज़ उमके यहाँ गया । पर वहां जाने से उसे प्रसन्नता न हुई । थोड़े ही दिनो में वह शीराज लौट आया और फिर कभी उसने उम शहर को नहीं छोड़ा। जब तक वह यज्द में था, शीराज़ को लौटने के लिये वह बहुत ही उत्सुक था। हाफ़िज के गृहस्थाश्रम-जीवन के विषय मे बहुत ही कम बातें ज्ञात है। उसने एक कविता में अपनी स्त्री की और दूसरी में अपने अविवाहित पुत्र की मृत्यु का कारुणिक उल्लेख किया है । यह भी सुना जाता है कि शाखे-नबात (इक्षुलता या मिश्री की क़लम) नामक एक सु-स्वरूपा रमणी पर हाफ़िज़ अनुरक्त था। उसकी बहुत-सी शृगारिक कविता उमी को लक्ष्य करके लिखी गई है। हाफ़िज़ के दीवान को कहीं भी मनमानी जगह पर खोलकर लोग शुभाशुभ प्रश्न देखते है और वहाँ पर निकले हुए पद्य या पूरी ग़जल के भावार्थ से प्रश्न का अर्थ निकालते हैं । ऐसा करने से पहले लोग एक मिसरा पढते है, जिसमें हाफ़िज़ को यथार्थ बात बतलाने के लिए शाखे-नबात की क़सम दिलाई गई है । वह मिसरा यह है- कसमे शाखे नबातस्त तुरा ऐ हाफ़िज़ । फ़ाले मा रास्विगोता शबदम बा तो यकी ।। इमसे भी हाफ़िज और शाखे-नबात का संबंध सूचित होता है। सुनते हैं, नादिरशाह को दीवाने-हाफ़िज़ पर इतना विश्वास था कि बिना उसके द्वारा शुभाशुभ का विचार किए वह कोई चढ़ाई या लड़ाई न करता था। हाफ़िज़ शिया-संप्रदाय का मुसलमान था । वह हदीस अर्थात् मुहम्मद साहब की निज की कही हुई बातों पर विश्वास न रखता था। उसने अपनी कविता में ऐसी-ऐसी बातें भी कही हैं, जिनको धाम्मिक मुसलमान अनुचित और धर्म-विरुद्ध समझते है । इन कारणो से जब हाफ़िज़ की मृत्यु हुई, तब शीराज के धर्माचार्यों में इस बात का विवाद उठा कि हाफ़िज़ का शव मुसलमानी नियमों के अनुसार उचित स्थान में समाधिस्थ किया