पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२१५

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- फारसी-कवि हाफिज / 211 इतना अधिक प्रचार है कि वहाँ के पढ़े-लिखे सामाजिक मनुष्यों को वह कंठ रहती है। ग़रीब और अमीर सभी उसकी कविता का आदर करते हैं । फ़ारिम के रेगिस्तान में दूर तक सफ़र करने वाले, खच्चरों और ऊँटों के क़ाफ़िले वाले, हाफ़िज़ की ग़ज़लों को बड़े प्रेम से गाते हैं और ऐसा करके मार्ग का श्रम परिहार करते हैं । हाफ़िज़ फ़ाग्मि का सबसे अधिक प्यारा और प्रसिद्ध कवि है। फ़ारिस के विद्वान् समालोचकों का मत है कि हाफ़िज़ की कविता निकम्मी- दूषित-ठहराई जा सकती है, परंतु उमकी तुलना और किसी कविता से नही की जा सकती । उसकी कविता अनन्वयालंकार का मच्चा उदाहरण है। उसकी समता उसी से हो सकती है और किसी से नहीं । वह वही है । हाफ़िज़ ने जो कुछ कहा है, नया ही कहा है। उसकी उक्तियों में उच्छिष्टता नहीं। उसमें दोष हो सकते हैं, परंतु वैसे दोष उमी में पाये जा सकेंगे, और, कही नही। उसकी कविता में जो रमणीयता है, वह उसी में है। उसे अन्यत्र ढूंढ़ना व्यर्थ है। हाफ़िज़ के बगबर प्रतिभाशाली कवि होना दुर्लभ है। उसके ममान ललित और मधुर-भाषी मग कवि, संस्कृत को छोड़कर, और भाषाओं में नही पाया जाता। हाफ़िज़ की कविता का आनंद, उसके दीवान को फ़ारसी ही में पढ़ने से, अच्छी तरह आ सकता है। अनुवाद में वह रम नही आता । हाफ़िज को, पंडितराज जगन्नाथराय की तरह, अपनी कविता का गर्व भी था। उसने कई जगह, इस विषय में, गर्वोक्तियाँ कही हैं ये गर्वोक्तियाँ चाहे सचमुच ही अभिमान-जन्य हों और चाहे यों ही स्वाभाविक रीति पर उसके मुंह से निकल गई हों। पर उसके मुंह से उमकी गर्वोक्तियाँ भी अच्छी लगती हैं। वह उसी प्रकार निकली हैं, जैसे फूलों से मकरंद टपकता है अथवा इक्षु से रस निकलता यहाँ पर, हम, हाफिज की रसवती कविता के दो-चार नमूने देना चाहते हैं और साथ ही मुशी नानकचंदजी का किया हुआ पद्यात्मक अनुवाद भी हम प्रकाशित करते हैं- (1) सबा अगर गुज़रे उफ्तदत् बकिश्वरे दोस्त । बियार नफ़हए अज गेसुए मुअंबरे दोस्त । अनुवाद पवन मीत जो कभी जाय तू मेरे प्राणप्यारे के देश । उसके केश सुगंधित से कुछ ले आना सुगंध का लेश ।। (2) बजाने ऊ कि बशुक्रानः भो बरफ्शानम् । अगर बसूये मन आरी पयामे अज़बरे दोस्त ।। अनुवाद प्यारे की है शपथ करूँ मैं तुझ पर नौछावर निज प्राण । एक संदेसा प्राणनाथ का जो तू मुझको देवै आन ।