पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२२

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18 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली 1000 वर्ष हुए उसके किनारे मानको कपक नामक एक मनुष्य अपनी स्त्री और बहन के साथ आया। देखने में उसका डीलडौल बहुत भव्य था। वह अपने को 'सूर्य का पुत्र' कहता था। उसने दूर-दूर जाकर व्याख्यानों द्वारा वहाँ के प्राचीन निवासियों को अपने अधीन कर लिया । कुछ दिनों में उसने कज़को नामक नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। मानको कपक ने क्रम-क्रम से सारा पेरू अपने अधिकार में कर लिया और आप वहाँ का राजा हो गया। वह धाम्मिक, न्यायी और बुद्धिमान था। उसने लोगों में धाम्मिक और नैतिक शिक्षा का प्रचार किया; सबको खेती करना, कपड़ा बुनना और उत्तमोत्तम पर तथा मन्दिर बनाना सिखलाया। उसके अनन्तर उसी वंश के 11 राजे और हुए । उन राजो ने कला-कौशल की बड़ी उन्नति की । जहाँ-जहाँ उन्होंने अपना राज्य फैलाया, वहाँ-वहाँ अनेक मन्दिर बनवाये; अनेक सड़कें बनवाई, अनेक धर्मशालाये बनवाई । ये राजे सूर्य के उपासक थे। इस उपासना वालों की ‘इन्का' संज्ञा थी। इन्का लोगों के पहले भी जो लोग पेरू में थे वे वहाँ के जंगली मनुष्यों की अपेक्षा बहुय सभ्य थे; परन्नु सभ्यता का विशेष प्रचार इन्का राजों ही के समय में हुआ। इन्का लोगों के आचार-विचार और रीति-भाँति चीन के निवासियों से कुछ-कुछ मिलती है । इसलिए विद्वानो का तर्क है कि वे चीन वालों ही की सन्तति है। परन्तु कई वातं उनमें ऐमी है जो हिन्दुओं से भी समता रखती है। क्या आश्चर्य, जो शङ्कराचार्य से परास्त किये जाने पर मौर, गाणपत्य और कापालिक आदि मतो के अनुयायी देशत्याग करके अमेरिका चले गये हों और वहाँ अपनी विद्या और सभ्यता से पेरू के प्राचीन निवासियों को अपने धर्म की दीक्षा देकर राजा हो गये हो ? बौद्ध लोगों का चीन, जापान, तिब्बत, लका, कोरिया, सुमात्रा, जावा और बोनियो आदि देशो और द्वीपों को जाना तो मिद्ध ही । इसलिए मूर्य और गणपति आदि के उपामकों का अमेरिका जाना सम्भव नहीं । कपक और मानको आदि शब्द संस्कृत के अपभ्रश जान पड़ते हैं। पेरू में जहाँ प्राचीन नगर और इमारतें थी, वहाँ खोदने पर हजारों वर्ष के पुराने बर्तन, कारागार, मन्दिर, मकान और मूर्तियाँ निकली है । कुछ मूर्तियाँ तो बहुत ही मुन्दर और बहुत ही बड़ी हैं । इस देश की मूर्तियों से वे बहुत कुछ मिलती है। इससे जान पडता है कि पेरू के प्राचीन निवासी मूर्तिपूजक थे । जहाँ तक पता लगा है, जान पड़ता है, उनकी सम्पत्ति की सीमा न थी। सोना और चाँदी मिट्टी-मोल था। प्राचीन इन्का लोगों ने अपने मन्दिर बनाने में अपरिमित धन व्यय किया था। इन्का लोगों के मन्दिरों में सूर्य्य का एक मन्दिर बहुत ही विशाल और बहुत ही आश्चर्य्यमय था। वह इन्काओं की राजधानी कजको नगर में था। इस मन्दिर का विध्वंस स्पेन वालों ने कर डाला। जहाँ पर यह था वहाँ, इस समय, एक गिर्जाघर विद्यमान है। इस मन्दिर का नाम 'कोरीकञ्चा' था। कोरीकञ्चा का अर्थ 'सुवर्ण स्थान' है । इस नाम में कच्चा शब्द संस्कृत 'काञ्चन' (सोना) का अपभ्रंश जान पडता है । इससे भी अनुमान होता है कि संस्कृत जानने वाले लोगों ही ने इस मन्दिर को निर्माण कराया था। इस सूर्य-मन्दिर के जो वर्णन आज तक मिले हैं उससे जान पड़ता है कि ऐसा भव्य मन्दिर शायद पृथ्वी की पीठ पर दूसरा न रहा होगा। उसमें सूर्य की एक प्रतिमा थी और वह सूर्य ही के समान देदीप्यमान ? 1