पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२४

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प्राचीन मिश्र में हिन्दुओं की आबादी 1 बहुत लोगों का ख्याल है कि प्राचीन काल के हिन्दू कूपमण्डूकवत् रहना बहुत पसंद करते थे । अर्थात् वे अपना घर छोड़कर दूसरे देशों को जाने के बड़े विरोधी थे। फिर यह ख्याल भ्रममूलक है । न्यूयार्क, अमेरिका के ए० डी० मार साहेब ने 'इंडियन रिव्यू' में एक लेख लिखा है; उसमें उन्होंने सिद्ध किया है कि साढ़े तीन हजार वर्ष पहले भारतवासी व्यापार आदि के लिए अन्य देशों में केवल आते जाते ही न थे, किन्तु वे मिश्र में जाकर बस भी गए थे। मिश्र में सोने की ऐसी बहुत सी खानें है जो ईसा के पहले सोलहवीं, सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में खोदी जाती थीं । उस समय पश्चिमी संसार में कोई देश, आबादी या व्यापार में इतना बढ़ा हुआ न था कि उसको सिक्के चलाने की ज़रूरत पड़ती । असल बात तो यह है कि इतने प्राचीन समय का एक भी पश्चिमी सिक्का अभी तक अहीं मिला। पुराने से पुराना सिक्का जो मिला है, ईसा के पहले चौदहवीं शताब्दी का है। इसके विरुख इस बात के दृढ़ प्रमाण मिलते हैं कि भारतवर्ष में अत्यन्त प्राचीन काल में भी खाने खोदी जाती थीं और उनसे सोना निकालकर सिक्के बनाये जाते थे। श्रुति, स्मृति आदि भारत के प्राचीनतम काल के साहित्य में भी अनेक प्रकार के सिक्कों के नाम आते हैं। यहाँ आबादी और व्यापार बढ़ाने के साथ साथ सिक्कों और गहनों आदि के लिए सोने की मांग भी अवश्य ही बढ़ गई होगी । सम्भव है, यहाँ काफी सोना न मिलने से भारतवासी मिश्र खानों से सोना लाकर अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते रहे हों। इस बात के सबूत मिलते हैं कि मिश्र में पहले पहल लंका निवासी समुद्र के रास्ते से अरब, अबीमीनिया, या एथिओपिया गए। इनके बाद मलाबार, कच्छ, उड़ीसा और ब्रगील का आम-पाम के रहने वाले मिश्र में पहुँचे । उत्तरी भारत के निवासी बोक्ट्रया, सक्षिा और या माइनर होते हुए, उन लोगों से बहुत पीछे, अर्थात् ईसा के पहले तेरहवीं शताब्दी में, पहुँचे । यद्यपि मिश्र वालों ने अपने इतिहास में भारतवासियों का जिक्र नहीं किया, मह पि उन्होने अपने इतिहास में अपने धर्मशास्त्र और अपनी वंश- 'परम्परा के स्वतंत्र रूप से की चेष्टा की है तथापि उन प्रत्येक बात से हिन्दुस्तानीपन टपकता है । पूर्वोक्त का माहब ने बड़ी ही दृढ़ और अकाट्य युक्तियों से यह साबित कर दिया है कि हिन्दू लुगम में जाकर बसे थे और उन्हीं से मिश्र वालों ने सभ्यता मिथु वाले अपने पहले राजा और धर्म-शास्त्रप्रणेता का नाम मीनस बतलाते हैं जो हमारे मनु के सिवा और कोई नही । केवल मिश्र वालों ने ही नहीं, किन्तु उस समय की अन्य जातियों ने भी मनु को मनिस, मनस; मनः, मन, मनु, मन्नु आदि नामों से