पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२६७

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मुग्धानलाचार्य / 263 पुगनी संस्कृत-पुस्तकें प्राप्त करने की भी थी। शायद बहुत सी पुस्तकें आप कौड़ी-मोल विलायत ले भी गये हों। एक अखबार में हमने पढ़ा था कि यहाँ के 'Native' (एतद्दे गीय) संस्कृत-विद्वानों से मिलकर संस्कृत-विद्या की उन्नति के विषय मे कुछ सूचनाये भी करने का आप इगदा रखते थे। भारतवर्ष में जितने अच्छे-अच्छ सस्कृत- पुस्तकालय है, जितने अच्छे-अच्छे प्राचीन वस्तु-मंग्रहालय है, जितने अच्छे-अच्छे कालेज हैं मव देख-भाल कर तब आप म्वदेश को लौटे हैं । डाक्टर मेकडॉनल विदेशी होकर भी मंस्कृत से इतना प्रेम रखते हैं । सात समुद्र पार के आप यहाँ आये । बहुत श्रम और बहुत खर्च आपने उठाया। यह मब विशेष करके इसलिए कि वैदिक संस्कृत-साहित्य-सम्बन्धी अच्छ-अच्छे ग्रन्य आप लिख सके । आपका यह मदुद्योग सर्वथा प्रशंसनीय और अभिनन्दनीय है। यहाँ के 'नेटिव' विद्वानो के 'मनमकर' का मालिन्य न मालम कब दूर होगा ' न मालूम सब वे मोत्याह संस्कृता- ध्ययन में लगेंगे. कब वे अनुसन्धान पूर्वक नई-नई बाते जानने का यत्ल करेगे; कब अच्छी अच्छी पुस्तकें लिखने अथवा पुरानी पुस्तको का पुनरुद्धार करने के लिए अग्रसर होगे। म्वामी नागयण-सम्प्रदाय-मम्बन्धी व्यवस्था देने. अथवा एकादशी आज हे या कल, इस पर विवाद करत वैठने आदि कामो मे उन बेनारों को अवकाश कहाँ ! आचार्य वर मग्धानल इस देश के विद्वानों से मिलने की इच्छा से भी भारत भ्रमण करने आये थे। आपके इम मद्भाव और मदद्देश की हम प्रशसा करते है । नही कह सकते आपने इस देश के किन-किन विद्वानो से वार्तालाप किया, किस-किस विषय में वार्तालाप किया और उन्हें कमा पाया । आप तो यहां के संस्कृतज्ञों को कोई चीज ही नहीं समझते। फिर उनसे मिलकर आप क्या फायदा उठा सकते है ? डाक्टर मेकडॉनल संस्कृत-शिक्षा के बडे पक्षपाती है। आपकी राय है कि जो लोग 'सिविल सर्विस' की परीक्षा पास करके इग देश में अफमरी करने आते हैं वे यदि विलायत ही से मंस्कृत पढकर आवे तो अँगरेजी राज्य की जड पानाल चली जाय और भारत की प्रजा की मुग्व-ममृद्धि भी बहुत बढ़ जाय । भारतवर्ष के नालायक़ पण्डितो से संस्कृत पढने से निशेप लाभ की सम्भावना नही । क्योकि ये लोग गुण-दोप-परीक्षापूर्वक संस्कृत पढाना नहीं जानते । ये लोग सूक्ष्मदर्शी नही। इससे 'सिविल सर्विस' वालो को आचार्य महोदय ही से संस्कृत पढकर यहाँ आना चाहिए। यह सूचना आपने अपने छात्रो की संख्या बढ़ाने के लिए नही किन्तु भारतवर्ष और इगलैंड दोनो के लाभ के लिए दी है। डाक्टर मेकडॉनल ने ऐसी ही अनेक निरर्गल बातो से भरा हुआ एक लम्बा लेख लन्दन की गयल एशियाटिक सोसायटी के जुलाई 1906 ईमवी के जर्नल में प्रकाशित कगया है । आपकी ये मब मधुर मनोहर वाते यहाँ के कुछ लोगो को मीठी नही लगो। बम्बई के एल्फिन्स्टल कालेज मे पण्डिन शाबर रामकृष्ण भाण्डारकर, एम० ए०, संस्कृताध्यापक है। उन्होने आचार्य महोदय के लेख का खण्डन लिखा । आपके प्रायः प्रत्येक आक्षेप की अमान्ता उन्होन दिखलाई। जवाब बहुत ही माकूल हुआ। उसे उन्होंने बम्बई की एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में छपने के लिए भेजा । परन्तु सोसायटी के मन्त्री महाशय ने उसे प्रकाशित करने से इनकार किया। आपकी राय हुई कि इस उनर 1