पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२७२

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268 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली अधर रुचिर पल्लव नये, भुज कोमल जिमि डार । अंगन में यौवन सुभग, लसत कुसुम उनहार ।। इस श्लोक की अपेक्षा ऊपर का श्लोक कितना अच्छा है, इसका विचार पाठक ही करें । पर मुग्धानल साहब कहते हैं कि शकुन्तला की सुन्दरता पर मुग्ध होकर (struck by her beauty) दुष्यन्त ने 'अधरः किसलय रागः' ही अपने मुंह से कहा। 'मुग्ध' होने की बात मूल में तो कही है नही। पर कविता की मनोहरता और उसके लोकोत्तर भाव को देखकर मम्भावना यही कहती है कि जिस समय दुष्यन्त ने 'मरमिज- मनुबिद्धं' वाला श्लोक कहा था उसी ममय शकुन्तला की सुन्दरता का सबसे अधिक प्रभाव उसके हृदय पर हुआ होगा। अतएव यहाँ मुग्धानल माहब पर ता-दोष आये बिना नहीं रह सकता । कण्व ने अपने एक शिष्य से कहा कि देख आ, कितनी रात है ? उसने आश्रम- कुटीर के बाहर आकर देखा तो प्रातःकाल हो गया था। इस पर वह कहता है- अन्तहिने शशिनि सैव कुमुद्वती मे दृष्टि न नन्दयति संस्मरणीय शोभा । इष्टप्रवासजनितान्यबलाजनस्य दुःखानि नूनमतिमात्रसुदुःमहानि ॥ इसका अर्थ राजा लक्ष्मणमिह करते हैं-"चन्द्रमा के अस्त होने पर कुमुदिनी की शोभा केवल ध्यान में रह गई है। अर्थात् देखने में नहीं है, परन्तु सुध्र में है कि ऐसी थी। जिन नई स्त्रियों के पति परदेश मे उनको वियोग का दुःख सहना बहुत कठिन है।" इसी भाव को उन्होने पद्य में इस प्रकार दिखाया है- अस्ताचल पहुँच्यो शशि जाई । दई कुमुदिनी छबि बिसराई दृगन देति अब आनंद नाही। आय रही छवि सुमरन माहीं जिन तिरियन के प्रीतम प्यारे। देम छोड़ि परदेम मिधारे तिनके दुख नहिं जात कहेह । अबलन पै क्यों जात सहेहू कालिदाम के पद्य में 'गिनि' बहुत ही यथार्थ पद है। 'शश' कहते है कलक को । चन्द्रमा कलंकी है। इमी से उसका नाम शिन् हुआ। और, कलंकी का अस्त हो जाना उचित ही है। इसी से इस पद को गजा माहब ने अपने अनुवाद में रहने दिया है। इम श्लोक में और भी विशेषताये है । श्लोक के प्रथमार्द्ध में शशि के अस्त होने से कुमुदिनी को शोभाहीन बतलाकर कवि ने ममामोक्ति-अलंकार द्वाग यह सूचित किया है कि बिना नायक के नायिका अच्छी नही लगती । अर्थात् चन्द्रमा और कुमुदिनी का विशेष दृष्टान्त देकर नायक-नायिका-सम्बन्धी एक सर्व-माधारण नियम की सूचना दी है । पर उन रार्द्ध में कवि ने इसका विलकुल उलटा किया है । वहाँ उसने जो यह कहा है कि पति के परदेश- वासी होने से अबला (जो बलहीन हैं) मात्र को वियोग का दु.ख दुःसह हो जाता है, सो एक सर्व-पाधारण नियम है । इस साधारण नियम से अर्थान्तरन्यास-अलंकार द्वारा यह