पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२८०

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276 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली अबीसीनिया के वर्तमान हबशराज 1843 ईसवी में पैदा हुए थे और 1889 में आप शाहंशाही तख्त पर बैठे । शुमालियों के देश का भी कुछ भाग आप ही के अधीन है । उसमें से थोड़ा-सा देश आपने, 1888 ईसवी में अँगरेज़ों को देकर उससे दृढ़ मित्रता कर ली है। पहले आपकी राजधानी आदिस अबाबा में थी; परन्तु मैन्यलिक महाराज को वह नगर पसन्द नहीं आया । इसलिए आपने अब आदिस ऐलन को अपना मुख्यस्थान बनाया है। जिन लोगों ने मैन्यलिक महाराज को देखा और उनसे बातचीत की है वे उन्हें हबशियों के समान जंगली नही बतलाते । मंन्यलिक खूब मोटे ताजे है, मज़बूत भी हैं; रंग वही आबनूस जैसा है। बातचीत आपकी बडी प्यारी होती है। हरे और पीले रंग के रेशमी कपड़े आप अधिक पसन्द करते हैं। आप बड़े न्यायी है। अपराधियो को कभी कभी आप बड़ी सख्त सज़ा देते हैं। परन्तु विदेशियों के साथ आपका बर्ताव बहुत नरम है। उन पर आप हमेशा मिहरबान रहते हैं । सूडान में अँगरेज़ो की प्रभुता और ट्रांमवाल के युद्ध में उनकी भारी हानि का हाल सुनकर, एक ममय, मैन्यलिक बहुत घबरा उठे थे । उनको यह भय हुआ था कि कहीं, एक दिन उनके पुगतन हबश-सिंहासन के ऊपर उनका भी आसन न हिलने लगे; परन्तु उनका यह भय अब दूर हो गया है। उनको यह मालूम हो गया है कि अँगरेज़-राज उनके सर्वथा शुभ-चिन्तक हैं विलक्षण वीरता दिखाने वालों को जैसे 'विक्टोरिया-कास' नामक पदक दिया जाता है वैसे ही मैन्यलिक महाराज अपने परम पराक्रमी और बहादुर योद्धाओ को शेर की खाल देते हैं। यह सबसे बड़ी ख़िलत है; इसे वे अपने ही हाथ से अता फ़रमाते है। मैन्यलिक का सेना-ममुह ऐमा वैसा नहीं-वीर है, निडर है, श्रम-सहिष्णु है। तीन दिन तक बिना खाये-पिये ये लोग मार-काट करते चले जाते है । ज़रा भी नहीं थकते; उनको लड़कपन से शिक्षा ही ऐसी दी जाती है। मैन्य लिक स्वयं महावीर हैं। एक बार इटली वालों से आपकी खटक गई। दोनों ओर की सेना भिड़ पड़ी। इस युद्ध में मैन्यलिक, हाथ में तीव्र तलवार लेकर, शत्रुओं पर ऐसे टूटे जैसे शेर हिरनों के झुण्ड पर टूटता है । एक पल में आपने कितने ही इटेलियनों को धराशाही कर दिया। अन्त में आप ही विजयी हुए। आप अपनी सेना को कभी कभी स्वयं शस्त्र चलाना, निशाना लगाना और कवायद परेड करना सिखलाते हैं। मैन्यलिक का चरित अद्भुत है। आपकी आजा है कि आपके वीर योद्धा शेरों के साथ युद्ध करें और युद्ध के समय एक भाला साथ रक्खें। ऐसा ही होता भी है, और नरगज के योद्धाओं के हाथ से बहुधा मृगराज ही को अपने प्राण बचाने पड़ते हैं । राजेश्वर का छत्र धारण करने पर मैन्यलिक ने तीन शेर अपनी राजधानी में बहुत दिनों तक खुले छोड़ रखे थे। जो विदेशी वहाँ जाते थे वे बेचारे उनके कारण बड़ी ही विपदा में पड़ते थे। एक बार एक साहब ने पूछा कि ये शेर क्या कभी किसी पर चोट करके उसे मारने नहीं ? इस प्रश्न को सुन कर मैन्यलिक महाराज ने बेपरवाही से उत्तर दिया-"हो, कभी कभी मार भी डालते हैं, परन्तु पीछे से हमेशा हमीं लोग उन्हें मार लेते हैं।" एक बार हबशीराज ने एक हाथी पाला था। वह भी खुला रहता था और