पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३००

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296 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली था। जापान के सम्राट केवल नाममात्र को सम्राट थे। वे इतने पवित्र और मनुष्य-कोटि से इतने उच्च समझे जाते थे कि प्रजा को उनके दर्शन तक दुर्लभ थे । अतएव शोगन लोग ही उनके नाम से जापान पर राज्य करते और विदेशी राज्यों से संधि आदि करते थे। 1854 में, तत्कालीन शोगन ने, जापान के कुछ बन्दरगाहों को विदेशी वाणिज्य और विदेशियों के निवास के लिए खोल दिया। इस पर पुराने विचार के लोग बड़े नाराज हुए । उनकी नाराज़ी बढ़ती ही गई । वे शोगन-पद तक को उड़ा देने के लिए तैयार हो गये । नये सम्राट ने भी उनका साथ दिया । शोगन का पद तोड़ दिया गया, परन्तु महज ही मे नही । बड़े बड़े उत्पात हुए । वे सब बल-पूर्वक शान्त किये गये। लोगो ने सोचा था कि शोगन-पद के टूटते ही विदेशियों का आना जाना जापान में बन्द हो जायगा और फिर वही पुराना शान्तिमय और आनन्ददायक समय आ जायगा जब मनमानी करना ही बलवानों का, और लातें तथा बातें सहना ही निर्बलों का काम था। परन्तु उनकी आशा पूर्ण न हुई। शोगन पद के टूटते ही नवीन सम्राट ने उस दल का पक्ष लिया जो विदेशियों का अपने देश में आने देने और जापानी जाति मे नाना प्रकार के सुधार किये जाने का हामी था। धीरे धीरे सम्राट के विचार कार्य-रूप में परिणत होने लगे । जिस मम्राट् को दर्शन उसकी प्रजा तक को दुर्लभ था उसी ने 1868 के मार्च में विदेशी गजदूतो से भेंट की। लोगों ने उनके इस काम पर बड़ी आपत्ति उठाई और कितने ही जापानियों ने गलियों और बाजारों में फिरने वाले विदेशियों के ऊपर आक्रमण भी किया: परन्तु इन बातों से वे तनिक भी भयभीत न हुए । सम्राट् अपनी राजधानी को क्वेटो से इडो (वर्तमान टोकियो) नगर में उठा लाये। उन्होंने विदेशियों पर आक्रमण करने वालों को उचित दण्ड दिया और विदेशियों की जो क्षति हुई थी उसे राज-कोष से पूर्ण कर - दिया। देश में कौन कौन से सुधार किये जायें, इस विषय पर विचार करने के लिए 1868 में मुत्सू हीटो ने देश के गण्य-मान्य पुरुषों की एक सभा का संगठन किया। इस मभा के अधिकारी जमींदार सदस्यों ने जिस प्रकार की देशभक्ति उम ममय प्रकट की उस प्रकार की शायद ही संसार के किसी भी देश के जमीदारों ने कभी प्रकट की हो। उन्होंने एक संयुक्त प्रार्थना-पत्र सम्राट के सामने पेश किया। उममें उन्होने लिखा- "हम और हमारे पूर्वजों ने चिरकाल तक इन ज़मींदारियों की आमदनी से सुख भोग किया है। इनमें निवाम करने वालों के तो हम विधाता ही है; परन्तु देश और जाति के सुधार के लिए और इसलिए कि हमारा देश संसार के उन्नत देशो की श्रेणी में गिना जाय, हमारी जाति संसार की उच्च जातियो की बराबरी कर सके, हम इन जमीदारियों से, जिन पर आज नक हमें स्याह और सफ़ेद तक करने का अधिकार प्राप्त था, जिनकी आमदनी से हम शारीरिक आनन्द लूटते थे और जिनके निवासियों को हम गुलामी की रम्मी के अमानुषिक बन्धनों से बाँधे हुए अपनी इच्छा के अनुसार नाच नचाते थे, अपना हाथ उठाते हैं और अपने सब सत्त्वों को त्यागते हैं । वे ज़मींदारियां अब आपके चरणों में अपित हैं। उनका जो चाहिए सो कीजिए । इतना ही नहीं, जननी जन्म-भूमि के लिए यदि हमारे शरीर की आवश्यकता हो तो वे भी हाज़िर हैं। -