बेंजमिन फ्रैंकलिन / 339 से पुस्तकों के लिए कुछ बचा रखता था और जिन पुस्तकों को वह न मोल ले सकता था उन्हें औरों से कुछ काल के लिए मांग लाता था। जीविका के लिए दिन भर तो वह काम काज में लगा रहता और आधी रात तक पुस्तकें देखा करता था। फ्रैंकलिन जैसा विद्वान् था वैसा ही स्वदेश-हितैषी भी था। इस कारण प्रतिष्ठा इतनी बढ़ी कि राज्य-सम्बन्धी सभाओ में उसकी कुरमी मिलने लगी। अमेरिका के निवासी अँगरेज़ों ने स्वाधीन होने के लिए इंगलैंड से युद्ध आरम्भ किया । उस समय उन्होने बेंजमिन को फ्रांस के दरबार में अपनी ओर से प्रतिनिधि बना कर भेजा। उसने वहाँ जाकर अपने देश वालों से फ्रांस वालों की मित्रता कराई। इस कारण फ्रांस और इंगलैंड वालों में युद्ध हुआ। जिस समय फ्रैंकलिन फ्रांस देश के पेरिम नगर में था उस समय एक आयरलैंड-निवासी जो वहाँ रहता था, बड़ी दुर्दशा में था। उसने पत्र द्वारा फैकलिन से कुछ सहायता चाही। फ्रैंकलिन ने उसे लिखा कि पत्र के साथ दस मोहरों की हुण्डी तुम्हारे पास भेजी जाती है। ये मोहरें मैंने तुम्हें दे नहीं डालीं किन्तु तुम इनको उधार समझो । आशा है कि जब तुम अपने देश लौट जाओगे तब तुम्हारी जीविका का कहीं न कहीं रिकाना हो ही जायगा। उस समय तुम अपना ऋण भी चुका सकोगे। इतना सामर्थ्य होने पर जब तुम किसी मनुष्य को ऐसी ही अवस्था में देखो जैसी अवस्था में तुम इस समय हो तब उसे यही मोहरें दे देना, और उससे भी जो मैने तुम्हे लिखा है, कह देना । ऐसा करने से तुम उऋण हो जाओगे। मैं चाहता हूँ कि इसी तरह रुपये से बहुतों का काम निकले । मैं बड़ा धनी नहीं हूं। तो भी थोडे ही धन से, जहाँ तक बन पड़े, दीन-दुखियों का उपकार करना चाहता हूँ। इसलिए मैंने तुमको यह पत्र लिखा अन्त में इंगलैंड और अमेरिका वालों में सन्धि हो गई, जिससे अमेरिका के निवासी स्वतन्त्र हो गये। उस सन्धिपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए अमेरिका वालों ने बेंजमिन को ही भेजा। दो बरस इंगलैंड में रह कर वह अपने देश को लौट आया। लौट उसके उपकारों का स्मरण करके, उसके देश-निवासियों ने उसे अपना प्रेजिडेन्ट अर्थात् सभापति बनाया। यह महान् पुरुष पचासी बरस की अवस्था में, अप्रैल की सत्रहवीं तारीख़ को, सन् 1790 में, परलोक सिधारा। आने पर, [अगस्त, 1916 को 'सरस्वती' में '-सिंह-वर्मा' नाम से प्रकाशित । असंकलित।]
पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३४३
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