पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३५४

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350 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली पर निश्चल रहा । अन्त में अपने अपूर्व धैर्य और विलक्षण अध्यवसाय से उसने पूरी सफलता प्राप्त की। इसके बाद पास्टुर के धैर्य और अध्यवसाय की कठोर परीक्षा हुई । फ्रांस में रेशम तैयार करने वालों में एक भयानक रोग फैल गया था । डूमा ने उसका अनुसन्धान करने के लिए पास्टुर से अनुरोध किया। पास्टर ने तब तक रेशम का कीड़ा भी नहीं देखा था। इसलिए पहले तो वह इस काम से हिचका, पर अपने एक मित्र के अनुरोध को वह टाल न सका । 1865 के जून में वह गया और सेप्टेम्बर में उसने अपने अनुसन्धान का फल प्रकाशिन किया । इसका परिणाम यह हुआ कि लोगों का डर बिलकुल ही दूर हो गया। पास्टुर साहब ने उस रोग का निदान और प्रतीकार दोनों ढंढ़ निकाले । फ्रांस का रेशम का व्यवसाय इससे खूब बढ़ा । पास्टर साहब ने एक बार कहा-There is no greater charm for the investigator than to make new discoveries, but his pleasure is heightened when he sees that they have a direct application to practical life. अर्थात् वैज्ञानिक को तो आविष्कार करने में ही आनन्द आता है, परन्तु जब उसका आविष्कार मानव-जीवन के लिए हितकर प्रमाणित हो जाता है तब तो उसके आनन्द की सीमा ही नहीं रहती। रोगों के प्रतीकार के लिए पास्टुर ने जो आविष्कार किया उसका मूल सिद्धान्त डाक्टर जेनर द्वारा पहले ही प्रतिपादित हो चुका था। 1796 में जेनर ने चेचक का टीका निकाला था । परन्तु पास्टुर ने उस सिद्धान्त के कार्यक्षेत्र को खूब बढ़ा दिया । उनकी रीति से अनुसरण का आश्चर्यजनक परिणाम हुआ । जान पड़ता हैं, सभी संसर्गज रोगों के प्रतिकार के लिए पास्टुर साहब का आविष्कार उपयोगी सिद्ध होगा । जिस तरह खमीर में एक विशेष प्रकार के जीवाणु होते हैं उसी तरह रोगों की भी उत्पत्ति जीवाणुओं से होती है । यदि कोई चाहे तो वह इन जीवाणुओं को पैदा कर सकता है। कृत्रिम उपायों से इन जीवाणुओं का बीज क्षीण कर दिया जाता है और यदि वह बीज किसी प्राणी के शरीर में प्रवेश करा दिया जाय तो उस रोग का भयानक प्रकोप न होगा; बहुत साधारण बुखार आ जायगा । परन्तु उसको फिर उस रोग का डर न रहेगा । यही जीवाणु (Virus) बीज (Vaccine) दवा हो गई। फ्रांस में मुर्गियों को एक रोग होता था । वह एक तरह का हैजा था। उससे हजारों मुर्गियां मर जाती थीं। पास्टुर साहब ने अपने सिद्धान्त का प्रयोग किया और उन्हें आशातीत लाभ हुआ। मुर्गियों की मृत्यु- संम्या एकदम घट गई। फिर उन्होंने भेड़ों और बलों के रोग में इसे प्रयुक्त किया। उनको टीका लगाया और उन्हें भी बड़ा लाभ हुआ। सबसे बड़ा काम पास्टुर साहब ने यह किया कि उन्होंने जलातंक-रोग (Hydro- phobia) की चिकित्सा ढूंढ़ निकाली । पागल कुत्ते, सियार आदि जानवरों के काट खाने से यह रोग होता है । यह बड़ा ही भयानक और कष्टदायक रोग है । पास्टर साहब पागल कुत्तों पर परीक्षा आरम्भ की। परीक्षा करने पर उन्हें मालूम हुआ कि जो पशु इस प्रकार के रोग से पीड़ित हैं उनकी मज्जाधातु में इस रोग का बीज होता है । उन्होंने यह सिद्ध किया कि यदि किसी पागल कुत्ते की पृष्ठ-मज्जा (Spinal Cord) से इसका