पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३५९

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यमलोक का जीवन /355 कभी-कभी दिखलाती है । इस पहाड़ के नीचे ही, कुछ दूर पर, लोगों ने शीत ऋतु बिताने के लिए, रहने का स्थान बनाना चाहा । हमको आशा थी कि यहाँ रहने से हम लोगों को कुछ गरमी मिलेगी; परन्तु हमारा यह ख़याल बिलकुल ही ग़लत निकला। पहले तो हम लोगों को बहुत गरम कपड़े नहीं पहनने पड़े; परन्तु कुछ काल में थर्मामीटर का पाग शून्य (०) के नीचे चला गया । तब हम लोगों ने निहायत गरम कपड़े निकाले । मोटे चमड़े के बूट भी सर्द मालूम होने लगे। इस कारण से सम्बूर के बूट पहनने की जरूरत पड़ी। बर्फ की वर्षा अधिक हो गई । हमारा जहाज़ बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ने लगा। हम लोगों को भय हुआ कि कहीं नियत स्थान पर पहुंचने के पहले ही जहाज न रुक जाय । परन्तु राम-राम करके किमी तरह हम लोग वहाँ तक पहुंचे जहाँ हमने जाड़ा व्यतीत करने का निश्चय किया था। हमको मालूम था कि 122 दिन की रात आने वाली है । इसलिए बहुत जल्द हमने ठहरने का प्रवन्ध किया और सब सामान ठीक करके जहाज का लंगर डाला। ज्या हो जहाज ठहरा और उसके चारों तरफ बर्फ का ढेर इकट्ठा हुआ; त्यों ही हम लोगों ने बर्फ में बड़े-बड़े बाँस गाड़ दिये और किनारे तक गाड़ते चले गये। फिर लम्बे-लम्बे रस्से लेकर हमने उन बाँसों पर बाँधे । बिना यह किये हम लोगों को जहाज का पता लगाना मुश्किल हो जाता । तब किनारे पर एक झोंपड़ा बनाया गया । उसमें थर्मामीटर और बारोमीटर इत्यादि यन्त्र रक्खे गये। सूर्य बिलकुल ही आकाश से लोप होने को हुआ। परन्तु उसका सम्पूर्ण तिरोभाव होने के पहले, एप्रिल के महीने में, कई दिनों तक 24 घण्टे का उषःकाल रहा । अस्ता- चलगामी सूर्य की किरणों के सुन्दर रंग बर्फ के संयोग से इतना मनोहर दृश्य दिखलाने लगे कि उनका वर्णन साधारण मनुष्य से होना असम्भव है। उस शोभा को चित्रित करने के लिए कालिदास या शेक्सपियर की लेखनी ही समर्थ हो सकती है। ध्रुव प्रदेश की रात एक ऐसी वस्तु है जिसकी समता संसार की और किसी वस्तु से नहीं की जा सकती। वह सर्वथा अनुपमेय है । वह कैसी होती है, यह जानने के लिये उसे आँख ही से देखना चाहिए । लिखने या बतलाने से उसका जरा भी अनुमान नहीं हो सकता । ज्यों ही रात हुई और शीत बढ़ा त्यों ही हम लोगों ने सम्बूर के कोट, बूट और टोपियां वगैरह निकालीं। मोटे-मोटे नीले कोटों के ऊपर हमने शीतल हवा से बचने के लिए, एक विशेष तरह का 'ओवर कोट' भी पहना। बर्फदंश एक प्रकार का रोग होता है । उसके होने का हम लोगों को पल-पल पर डर मालूम होने लगा। हम लोग एक दूसरे के मुंह की तरफ देखने लगे कि कहीं बर्फदंश के चिह्न तो नहीं दिखाई देते । जिसे बर्फदंश होता है उसे ऐसा जान पड़ता है कि बर्र ने डंक मारा । जिसे इस तरह का दंश होता था वह फ़ौरन अपना दस्ताना उतार कर उस जगह को देर तक रगड़ता था । ऐसा करने से पीड़ा कम हो जाती है और विशेष विकार नहीं बढ़ता। परन्तु यदि ऐसा न किया जाय तो उस जगह मांस के गल जाने का डर रहता है। यहाँ पर बहुत सख्त जाड़ा पड़ता है। जाड़े का अनुमान करने के लिए हम यह -