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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३६२

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358 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली लोग तत्काल उसके दर्शनों के लिए बाहर निकले । जिसने सूर्य के बहु-काल-व्यापी लोप का अनुभव नहीं किया वह कदापि नहीं जान सकता कि उसका पुनदर्शन कितना आनन्द- दायक होता है । आकाश ने अजीब रंगत धारण की; उसने बलात् हम लोगों के हृदय का हरण कर लिया । जितने जीव और जितने पदार्थ थे सबमें नया उत्साह और नया जीवन-सा आ गया। जितने मेघ थे सबने इन्द्रधनुष की शोभा छीनी; नाना प्रकार के मनोमुग्धकारी रंगों से वे भर गये । अब बेपहिये की छोटी-छोटी गाड़ियों को साथ लेकर बाहर निकलने का मौसम आया । सब तैयारियां शीघ्र ही हुई । कुत्ते, छोलदारियाँ, खाने-पीने का सामान, कपड़े- लत्ते और सोने के लिए थैलियाँ तैयार हुई। हम लोग सफ़र के लिए निकल पड़े । जहाँ तक मुमकिन था हमने कम असबाब साथ लिया । इस सफ़र में हमने एक बार भी कपड़े नहीं उतारे । हाँ, मोजे अलबत्ते हर रोज़ निकालने पड़ते थे, क्योकि न निकालने से पैर चिपक जाने का डर था। जब हम चले, हमारे सोने के थैलो का वज़न 7 सेर था; परन्तु जब हम लौटे तब वह 14 सेर हो गया था । बर्फ ने उनके वज़न को दूना कर दिया था। जब दो आदमी कोशिश करके खोलते थे तब रात को सोने के वक्त ये थैले खुलते थे। वे इतने ठण्डे हो जाते थे कि उनमें और बर्फ में कोई अन्तर न रहता था। उसी के भीतर हम लोग किसी प्रकार बड़े कष्ट से रात बिताते थे। सुबह के वक्त हमारे पर सुन्न हो जाते थे, बड़ी बड़ी मुश्किलो से वे मोजों और बूटो के भीतर जाते थे । ऐमी मुसीबते झेलते हुए हम लोग 300 मील तक गये । यहाँ तक जाने मे हमको 94 दिन लगे । किमी-किसी दिन हम लोग 15 मील जाते थे । इस सफ़र मे हमारे बहुत से कुत्ते मर गये । इसलिए हम लोगो को स्वयं गाड़ियाँ खीचनी पड़ी। जब हम लोगो ने देखा कि हमारे कुत्ते मर रहे है तब हमने अपने खाने-पीने का मामान एक जगह रख कर गाड़ियां हलकी कर ली। तेल भी कम कर दिया गया। इसलिए एक ही दो बार चूल्हा जलने लगा। इसका फल यह हुआ कि हम लोगो को गरम खाना कम नमीब होने लगा। जरा-सी शक्कर, मील के मास का एक छोटा-सा सूखा टुकड़ा और डेढ़ बिस्कुट पर हम लोग बसर करने लगे। ये चीजें हम रास्ते में चलते-चलते खाते थे । कुत्तो की बुरी हालत थी । जब हम लोग खाते थे तब वे हमारे मुंह की तरफ देखा करते थे कि अगर कोई टुकड़ा नीचे गिरे तो वे उसे उठा लें मगर यह उदारता दिखलाना हम लोगों के लिए स्वय अपनी मृत्यु को बुलाना था। जब शाम को हम लोग कही ठहरते तब हम एक कुत्ते को प्रायः गोली मार देते। उसी के मांस से दूसरे कुत्तों का गुजर होता । प्रतिदिन हमारी खूगक कम होने लगी; भूख से हम लोग विकल होने लगे; यहाँ तक कि बिस्कुट और हलवा हम लोगों को स्वप्न में भी देख पड़ने लगा। दिन-रात खाने ही की चीजों का ध्यान रहता था। एक प्रकार की निराशा ने सबके चेहरो का रंग फीका कर दिया। नवम्बर भर हम लोग इसी तरह सख्त मुसीबतों में मुन्तिला रह कर भी बराबर चले गये। दिसम्बर में भी यही हालत रही । अन्त को 31 दिसम्बर के दिन हम लोग अपने सफ़र की अन्तिम सीमा पर पहुँचे; वहाँ से आगे हम न बढ़ सके। वहीं हमने अंगरेज़ी झण्डा खड़ा कर दिया। -