पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४०३

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पूर्वी अफ़रीका की कुछ जंगली जातियां / 399 है कि मनुष्य के लिये प्रायः अगम्य है । यह भयानक वन विकराल हिंस्र जीवों का घर है। इसमें शेर, बबर, चीता, गैंडा, हाथी, रीछ, जेबरा, शुतुर्मुर्ग, जिराफ़, अजदहा और सैकड़ों प्रकार के विभीषक सर्प विचरा करते हैं । इनके सिवा सैकड़ों तरह की विलक्षण-विलक्षण चिड़ियाँ और दूसरे जीव भी यहाँ पाए जाते हैं। कितने ही वृक्ष, फूल और बेले यहाँ ऐसी हैं, जो शायद ही और कही होती होगी। यहाँ का मिह बहुत बलवान्, भयंकर और प्रकाडकाय होता है । उमका रंग ऊँट का-सा होता है और उसकी गरदन के बाल 15 अंगुल से भी अधिक लंबे होकर नीचे लटकते हैं । अफ़रीका के हाथी भी बहुत बड़े होते हैं । उनकी वहाँ बड़ी अधिकता है। अफ़रीका ही से सबसे अधिक हाथी-दाँत भेजा जाता है। एक-एक दाँत छ:-छ: मन का होता है। जिस समय उगंडा-रेलवे की नाप हो रही थी, उस समय एक इंजीनियर साहब को एक बहुत बड़ा दाँत मिला था। उसको उठाने में 18 आदमी लगे थे। पूर्वी अफ़रीका का कुछ भाग जर्मनी वालों ने भी अपने अधिकार में कर लिया है। उनकी और अँगरेज़ों की हद मिली हुई है । जो देश जर्मनी वालों के अधिकार में है, उसमें मिलेगान जारू नामक एक बहुत ऊँचा पर्वत है। उसकी सबसे ऊंची चोटियाँ वर्फ से ढंकी रहती हैं। वहाँ केले के सिवा और कोई चीज़ नही पैदा होती। उसी को खाकर लोग जीते हैं। जर्मनी के पादरियों ने वहाँ 'मिशन' स्थापित किए है । उनके द्वारा वहाँ के जंगली किरिस्तानों को तामील दी जाती है और किरिस्तानी धर्म सिखलाया जाता है। जर्मनी ने भी रेल बनाई है। उसका नाम 'टाँगा-रेलवे' है । अंगरेजों के पूर्वी अफ़रीका में भो सैकड़ों 'मिशन' हैं । वहाँ भी उस देश के जगली शिक्षा पाते हैं और हज़रत ईमा के अनुयायी बनकर क्रिश्चियनों की संख्या बढाते हैं। ममबासा समुद्र के किनारे और विषुववृत्त से थोडी ही दूर पर है । इसलिये वहाँ की आबोहवा न बहुत सर्द है. न बहुत गरम । उससे कोई 50 मील पश्चिम की ओर मर्दी अधिक पड़ती है। ममबासा से कोई 100 मील आगे तो इतनी अधिक सर्दी पड़ती है कि मोटे-मोटे चार-छ: कंबलो से भी जाडा नही जाता। परंतु उगंडा के पास, अर्थात विक्टोरिया न्यान्जा झील के निकटवर्ती प्रदेश में, बिलकुल सर्दी नहीं पड़ती । वहाँ तो सख्त गर्मी पड़ती है। अँगरेज़ों के इस पूर्वी अफ़रीका में जंगली हबशियो की तीन जातियों रहती हैं- सुहेली, धकांवे और मसाई । उगंडा-रेलवे को प्राय पंजाबी कुलियों ने बनाया है। क्योंकि अफरीका के ये जंगली पहले मजदूरी भी नहीं करते थे। असभ्यता के कारण वे सभ्यो से दूर भागते थे। परंतु अब वे काम करने लगे हैं। पाँच रुपए तनख्वाह अथवा पेट भर खाने को चावल देने से वे, सबेरे से शाम तक, खन काम करते है। उनमे से सुहेली कुछ अधिक सभ्य हैं । वे अरब और अफ़रीका के पुरातन हबशियों की संतति हैं। इस समय मिशनरी स्कूलों में वे शिक्षा पा रहे हैं। आशा है कि वर्ष-दो वर्ष में उनमें से कितने ही सुहेली रेल में लिखने-पढ़ने का काम करने लायक हो जायेंगे । सुहेलियों में जो क्रिश्चियन नहीं हुए, वे मुसलमान हैं: परंतु धकाबे और मभाई जाति के लोग कोई धर्म नहीं रखते । वे सर्वथा धर्महीन और जंगली हैं। उनका रंग