पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४०४

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400 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली तवे के समान काला होता है। उनके सिर पर भेड़ की ऊन के समान छोटे-छोटे, परंतु कोमल, केश होते हैं । दाढ़ी-मूंछ उनके बिलकुल नही होती। स्त्री-पुरुष सभी नंगे रहते हैं और धनुर्बाण हाथ में लिए जंगल में, शिकार की खोज में, घूमा करते है । मांस और शहद ही विशेष करके इनका खाद्य है। ये लोग हाथी-दाँत, शहद, गैंड के सीग, शुतुर्मुर्ग के पर और नाखून अरबों और मोमिन लोगों को देकर कभी-कभी उनसे ताँबे, पीतल और लोहे के तार लेते है। फिर इन तारो को मोड़कर हाथ, पैर और गले में वे आभूषण की तरह पहनते हैं। जो कुछ सभ्य है, वे मोटा कपड़ा भी बदले में लेते हैं और उसे कमर से लपेटते है । ये लोग पूरे निशाचर है । इनमें निर्दयता का अखंड वास है । ये अपने तीर- कमान ही को अपना सर्वस्व समझते हैं । और जीव-हत्या ही को अपना व्यवसाय जानते है। जो लोग शहरो और नगरो के पाम रहते हैं और जिनका सभ्य आदमियो से संपर्क रहता है, उनमें कुछ-कुछ समझ आने लगी है। इससे कोई-कोई जमीन खोदकर मकई, ज्वार और बाजरा आदि बोने लगे हैं; गाय और बकरियां रखने लगे हैं; दूध भी बेचने लगे हैं । मसाई जाति के लोग अधिक बलवान्, निडर और पराक्रमी होते हैं । उनका भी रंग कोयले की तरह काला होता है। हाथ में भाला लिए हुए वे जंगल में विचरा करते है। उनमें से कोई-कोई गाय, भेड़ या बकरी की खाल से शरीर का निचला भाग ढक लेते हैं । मसाई लोग पीली या लाल मिट्टी को तेल में मिलाकर अपने सारे शरीर पर पोत लेते है । इस प्रकार के लाल-पीले आदमी, उन लोगो में, बहुत ही खूबसूरत समझे जाते है। पुरुष जरा आराम-तलव होते है; उनकी स्त्रियां ही अधिक काम करती हैं। इन लोगों के पास सिवा तुबे के और कोई बरतन नही रहता। वही उनका, क़ीमती पात्र है । मसाई प्रायः स्थिर नहीं रहते; घूमना ही उनका स्वभाव है । आज यहाँ, कल वहाँ । कभी- कभी दस-बीस कुटुब इकट्ठे भी रह जाते हैं। ऐसे लोग फूस के छोटे-छोटे झोपड़े बना लेते है । यों तो इनका पेट शिकार से भरता है; परंतु जब इनको शिकार नहीं मिलता और भूख से ये बहुत पीड़ित होते हैं, तब ये ताजे रुधिर और दूध में बकरियों की मेंगनी डालकर उसे खाते हैं । वही उनकी खीर है । बकरी के बदन में लोहे की एक पैनी सलाई वे घुसेड़ देते है। उससे जो रुधिर निकलता है, उसे वे तुबे में भर लेते हैं । उसमें फिर वे उसका दूना दूध मिलाते है । जब वह सब एक हो जाता है, तब उसमें बकरियों की ताज़ी मेंगनी डालकर उसे वे खूब मिलाते हैं और मिलाकर खा जाते हैं। इनको कोई ऐसी बूटी मालूम है कि उसे लगाने से, इस प्रकार मलाई से किया हुआ बकरी के बदन का घाव शीघ्र ही अच्छा हो जाता है। धकांवे जाति से दूसरे जंगली आदमी बहुत डरते है । उनको विश्वास है कि धकांबे विकट जादू जानते हैं और अद्भुत-अद्भुत गुण रखने वाली जड़ी-बूटियों के प्रयोग से वे जो चाहे कर सकते है । यह जाति भी बड़ी निर्दयी है। बड़ी-बड़ी चिड़ियों को ये लोग जाल में फांसते हैं । फिर, जीते ही उनके बाल और पर उखाड़ते हैं । अनंतर उन्हें वे आग में समूची ही जीती खड़ी कर देते हैं । इस तरह उन्हें थोड़ा बहुत झुलसाकर वे खा जाते है । इस जाति की स्त्रियाँ प्रायः दिगंबर रहती हैं । गले और कमर में वे पत्थर के म. दि. 10.4