पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४१६

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412 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली तरह पकाकर नहीं खाते;केवल उसको सेंक लेते हैं । नहीं कह सकते कि ये उसको पकाना ही नही जानते या इनको कच्चा ही मांस अच्छा लगता है। बौने लोग नर-मांस को बड़े प्रेम से खाते हैं । हमने देखा है कि ये लोग कब्र खोदकर मृत देह को उठा ले गए हैं । हमारे दल के लोगों को मारकर भी इन्होंने खाया है । एक दिन हमने देखा कि एक आहत स्त्री को घेरे हुए कुछ बौने बैठे हैं और उसके चारों ओर अग्नि जल रही है । प्रत्येक बौने के हाथ में एक-एक बरतन है। उनके बैठने के ढंग ही से मालूम होता था कि उस स्त्री का मांस खाने का बंदोबस्त ये लोग कर रहे हैं। हमने अपने कैदियों से पूछकर निश्चय कर लिया है कि अफरीका के बौने नर-मांस-भक्षी हैं । " बौने खेती नही करते और न कोई अन्य पदार्थ ही उत्पन्न करते है । जंगल के बाहर वाले कृषक तंबाकू, केला इत्यादि उत्पन्न करते हैं । उन्हीं को चुराकर बौने अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं । इन लोगों के अस्त्र-शस्त्र, बरछे, तीर, कमान और रे हैं । धनुष के दोनों किनारों पर ये रेशम के फूल लगाते हैं और बीच में बंदर की पूंछ बाँधते हैं । यह पूंछ धनुप को कड़ा बनाए रखने के लिए व्यवहार की जाती है । तीगे की लंबाई कोई अठारह इंच होती है । उनका अगला सिरा विष से बुझा रहता है । इन नीरों को बड़ी सावधानी से छूना चाहिए; क्योकि मूखा हुआ विष भी बड़ा भयानक होता है। इस विष के प्रयोग मे बड़ी ही भीषण यंत्रणा-दायक मृत्यु होती है। ईश्वर न करे किमी की मृत्यु इससे हो । इस विप से मरने की अपेक्षा अन्य सब प्रकार से मरना मनुष्य मादर स्वीकार कर सकता है। इस विष-प्रयोग की बात हम पहले न जानने थे। 1887 ईमवी में इन बौनों के साथ एक क्षुद्र युद्ध में हमारे कई सिपाही सामान्य रूप से घायल हुए । हमने उनका तुरंत इलाज किया; परंतु तब भी वे न वच मके। यदि वे तीर विषाक्त न होते, तो विना किमी चिकित्सा ही के वे अच्छे हो जाते । घायलों में से कई एक धनुष्टंकार रोग से पीड़ित होकर मरे । कई एक के आहत स्थान सड़ गए और उनकी बुरी मृत्यु हुई । जो लोग कुछ दिन बचे भी उनका रक्त इतना दूपित हो गया कि वे अपने जीवन को बोझ ममझने लगे। उनकी समझ में ऐसे जीवन से मृत्यु ही भली। इस विष का प्रतिकार करने वाली ओषधि हमने कोई एक माल मे हूंढ़ निकाली । बहुत परीक्षा करने के बाद यह मालूम हुआ कि आहत स्थान के निकट एमन- कार्य (Ammon Cusb) ओपधि का प्रवेश करने से बड़ा लाभ होता है । ये लोग अपने विष को जिम वस्तु मे तैयार करते है उसमे डाक्टर प्रोजर ने स्ट्रोपांथिन (Stropinthin) नाम की एक ओषधि तैयार की है । उमकी 1, ग्रेन मात्रा व्यवहार करने से मृत्यु हो मकती है। बौने मनुष्य दो भागों में विभक्त हैं । एक दल के लोगों का रंग कुछ-कुछ लाल होता है; दूसरे दल वाले वेहद काले होते हैं। दोनों ही दल वालों का मस्तक चौड़ा और टुड्डी बड़ी होती है। उनके हाथ छोटे और चिकने तथा पैर टेढ़े होते हैं। तिस पर भी कितने ही बौनों का चेहग खूबसूरत होता है । "बौनों के मरदार की एक म्त्री का रूप वर्णन करने योग्य है । उसके शरीर का रंग अत्यंत उज्ज्वल था । वह बहुत गहने न पहने थी; केवल लोहे के कुछ बाले और नाक 10