पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४३०

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426 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली 1 कुछ भी उन न होता। वे उलटा अपने को बड़ा भाग्यवान् समझते । इस प्रकार बलिदान कर दिए जाने वाले मनुष्यों की संख्या भी थोड़ी न होती थी। मेक्सिको देश में ही एक वर्ष में बीस-बीस हजार आदमी इस प्रथा की भेंट हो जाते थे। कभी-कभी तो यह संख्या पचास-पचास हजार तक पहुँच जाती थी। फिर यदि कही किसी वर्ष राजतिलकोत्सव हुआ, अथवा किसी मंदिर की प्रतिष्ठा हुई, तो फिर क्या कहना है। यह संख्या लाखो तक पहुँच जाती थी। 1486 ईसवी में मेक्सिको के एक नगर में, एक मंदिर की प्रतिष्ठा हुई थी। वर्षों पहले से उसकी प्रतिष्ठा की तैयारी होती रही । दूर-दूर से लोग उसमें बलिदान किए जाने के लिये पकड़ मँगाए गए। जिस दिन इस मंदिर की प्रतिष्ठा हुई, ये लोग दुहरी पंक्ति में दो मील तक बिठाए गए। कई रात और दिन तक इनकी कुरबानी होती रही। एक-एक दिन में सत्तर-सत्तर हज़ार मनुष्य मारे गए। लोग कदाचित इतने आदमियों के, उँगली तक हिलाए बिना, मारे जाने की बात पर विश्वास न करें। परंतु इस बात की सत्यता के प्रमाण केवल उन्हीं पाश्चात्त्य विद्वानो के लेखों से नहीं मिलते, जिन्होने मेक्सिको की बातों की खोज करके ऐतिहासिक पुस्तकें लिखी हैं, कितु मेक्मिको के आदिम निवासी तक इस बात की गवाही देते है। इसके अतिरिक्त वह मंदिर, जिसमे यह महानरमेध-यज्ञ हुआ था, उस समय भी विद्यमान था, जब स्पेन वालों ने मेक्सिको को अपने हस्तगत किया था। जिन लोगो का बलिदान होता था, उनकी खोपड़ियाँ मंदिर की दीवारो पर खूटियों से लटका दी जाती थी। उस मंदिर में स्पेन वालो की बहुत-सी खोपड़ियाँ लटकी मिली थी। स्पेन के दो सैनिकों ने उन्हे गिना भी था। कहते हैं कि उनकी संख्या एक लाख छत्तीस हजार से अधिक थी। इन आदमियों के इस प्रकार, हाथ-पैर हिलाए बिना, मर जाने का एक बड़ा भारी कारण भी था। वह यह कि उन लोगो को दृढ़ विश्वास था कि इस प्रकार की मृत्यु बहुत अच्छी होती है, और मरने के बाद हमें स्वर्ग और उसके सुख प्राप्त होंगे। इसी से वे अपना बलिदान कराकर बड़ी खुशी से मरते थे। मेक्सिको वाले हर साल अपने आस-पास के देशों पर चढ़ाई करते थे। दिग्विजय के लिये नहीं, केवल बलिदान के लिये दूसरे देशों के आदमियों को पकड़ लाने के लिये। मेक्सिको के पास 'टेज कीला' नाम का एक राज्य था। मेक्सिको के राजा और वहाँ के राजा में यह अहदनामा हो गया कि साल में एक खास दिन, एक नियत स्थान पर, दोनों राज्यो की सेनाएं एक दूसरी से लड़ें। हार-जीत की कोई शर्त न थी। बात थी केवल इतनी ही बलिदान के लिये एक पक्ष दूसरे पक्ष के जितने आदमी जबरदस्ती कैद कर सके, कर ले जाय। नौबत हाथापाई तक न रही, मार-काट अवश्य होने लयती। संध्या को लड़ाई बंद हो जाती। उस समय दोनों पक्ष वाले एक दूसरे से मित्रों की तरह मिलते, परंतु युद्ध के कैदियों की कुछ बात न होती। इन्हीं कैदियों का एक-एक करके बलिदान किया जाता। जब उनकी संख्या थोड़ी रह जाती, तब लोग राजा से फिर इसी प्रकार से युद्ध की आज्ञा मांगते। मेक्सिको वाले नर-मांस-पक्षी बीये। बलिदान के बाद ग्राश उस आरसी को