पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४६९

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यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें | 465 स्टेट्स जनरल नाम की सभा फ्रांस में बहुत प्राचीन समय से थी। उसमें तीनों वर्गों के लोग (सरदार, धर्मोपदेशक और साधारण जन) शामिल रहा करते थे, परन्तु इस सभा के तीसरे वर्ग अर्थात् साधारण जनों के प्रतिनिधि, सन् 1614 से, कभी बुलाये ही न गये थे । सिर्फ सरदार और धर्मोपदेशक, अर्थात् हक़दार वर्गों के लोग ही राज्य का मनमाना प्रबन्ध कर लिया करते थे। अब, सन् 1789 में, इस सभा के साधारण जनो के 600 प्रतिनिधि पेरिस में एकत्र हुए और कहने लगे कि तीनो वर्गों के प्रतिनिधिओं की एक ही सभा होनी चाहिए। फ्रेंच सरकार हक़दार लोगों के अधीन थी। इसलिए उसने सोचा कि यदि तीनों वर्गों की सभा एकत्र होगो तो हमारा कुछ भी महत्त्व न रहेगा-हमारी प्रभुता नष्ट हो जायगी। अतएव उन लोगों ने निश्चय किया कि हम अपने वर्ग की सभा अलग करेंगे। इस पर बहुत वाद-विवाद हुआ। सर्वसाधारण लोगों के प्रतिनिधियो ने साफ़ कह दिया कि यदि सब वर्गों की एक ही सभा न की जायगी तो हम सरकार को किसी काम में सहायता न देगे-हम केवल तटस्थ रहेगे (इसी को अँगरेजी में 'Passive Attitude कहते है)। ज्यों ही वे इस प्रकार तटस्थ हो गये त्यो ही सारे सरकारी काम बन्द होने लगे। सरकार को द्रव्य की अत्यन्त आवश्यकता थी। बड़े बड़े हक़दार लोग स्वयं कर देना पसन्द न करते थे । प्रजा के प्रतिनिधियो की सम्मति के बिना किसी प्रकार का नया कर लगाना बहुत कठिन था। राजा बड़े बड़े हक़दार लोगो के भय से प्रजा-पक्ष का स्वीकार करने में हिचकता था। इतने में मिराबो नाम का साहमी मनुष्य प्रजा के प्रतिनिधियों का अगुआ हो गया और उन लोगो ने यह इश्नहार दिया कि हम 'राष्ट्रीय सभा' (National Assembly) के सदस्य है । हमारी मम्मति के बिना राज्य का कोई कार्य नही किया जा सकता । सरकार ने हकदार वर्गों के हका की रक्षा करने के लिए प्रजा के प्रतिनिधियो को सभा से निकाल दिया । तब वे लोग समीप ही एक स्थान मे जा बैठे और वहाँ इस बात का विचार करने लगे कि अब अपने देश में भावी प्रबन्ध के विषय में क्या निश्चय करना चाहिए। उन लोगो ने शपथ-पूर्वक यह प्रतिज्ञा की कि जब तक हम अपने देश का प्रबन्ध नियमानुसार न कर लेगे तब तक यहाँ से न हटेगे। शीघ्र ही इस झगड़े का समाचार सारे देश में फैल गया । स्वतन्त्र विचार करने वाले लेखको के कारण, साधारण लोगों को भी, सार्वजनिक हित के विषयों में. स्वयं विचार करने की आदत पड़ गई थी। इस कारण देश के एक छोर से दूसरे छोर तक यह पुकार मची कि सर्वसाधारण लोगो के प्रतिनिधियों की सभा ही सच्ची 'राष्ट्रीय सभा' है और हकदार वर्गों के लोगो को चाहिए कि वे उसी सभा में शामिल होकर काम करे। अनेक स्थानों में छोटे बड़े दंगे भी हुए। तब हार खाकर, राजा की अज्ञा से. हक़दार वर्गों के कई लोग प्रजा-प्रतिनिधि-सभा में शामिल हुए । इस प्रकार फ्रांस की राज्यक्रान्ति पहली लड़ाई सन् 1789 के जून महीने मे लोगो ने जीती और सच्ची राष्ट्रीय सभा स्थापित हो गई। राज्यक्रान्ति की इस पहली लड़ाई को पूरे चार महीने भी न हुए थे कि इतने ही समय में जून 23 से अक्टूबर 6 तक चार बड़ी बड़ी महत्त्वपूर्ण घटनायें हो गईं-