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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/५८

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54 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली हो चला। उनकी आमदनी के द्वार क्रम-क्रम से बन्द होने लगे। यहां तक कि 1661 ईसवी में उन लोगों ने अपनी बची-बचाई एकमात्र ज़मींदारी इंगलिस्तान के राजा को दे डाली। उस समय केवल बम्बई और उसके आसपास का भूभाग उन लोगों के कब्जे में था। पूर्वोक्त मन् में पोर्चुगल की राजकुमारी कैथराइन का विवाह इंगलैंड के गजा दूसरे चार्ल्स के साथ हुआ। तब बम्बई की जमींदारी को अपने किसी काम की न समझकर पोर्चुगल के राजा ने कैथराइन के दहेज में दे डाला। परन्तु अँगरेज़-राज ने इस दहेज को तुच्छ समझकर 150 रुपये सालाना मालगुजारी देने का इकरारनामा लेकर, ईस्ट इंडिया कम्पनी को दे डाला। बम्बई और उसके आस-पास के प्रदेश की कीमत उस समय साढ़े बारह रुपये महीने से अधिक नहीं समझी गई !!! व्यापार व्यवसाय और जमीदारी आदि बढ़ाने में पोर्चुगीज लोगो की प्रतियोगिता यद्यपि जाती रही तथा अँगरेज़ों को भारत में सत्ता-विस्तार करते देख योरप के और लोगों के मुंह से भी लार टपकने लगी। फ्रांस, डेनमार्क और हालैंड में भी ईस्ट इंडिया नाम की कम्पनियां खड़ी हुई। उन्होने भी भारत में व्यापार आरम्भ करके अंगरेज-कम्पनी के मुनाफ़े को घटाना आरम्भ कर दिया। यही नही, किन्तु जर्मनी और स्वीडन में भी इस तरह की कम्पनियाँ बनी। उन्होने भी भारत में अपनी-अपनी कोठियाँ खोली। परन्तु डेनमार्क, जर्मनी और स्वीडन की कम्पनियो से हमारी अँगरेज़ी ईस्ट इंडिया कम्पनी का कुछ भी नहीं बिगड़ा। इन तीन कम्पनियों का महत्त्व इतना कम था कि अंगरेजी कम्पनी के साथ ये नाम लेने योग्य चढ़ा-ऊपरी नहीं कर सकी। परन्तु डच और फ्रेच कम्पनियो के विषय में यह बात नही कही जा सकती। उनके कारण अंगरेज कम्पनी का मुनाफ़ा और प्रभुत्व जरूर कम हो गया ! डच लोग उस समय मामुद्रिक बल में अपना मानी न रखते थे। इससे उन लोगों ने हर तरह से अँगरेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ चढा ऊपरी आरम्भ कर दी-यहाँ तक कि बल-प्रयोग करके भी अपना मनलव निकालने में डच लोगो ने कसर नहीं की। भारत ही में अपना प्रभुत्व-विस्तार करके डच लोग चुप नहीं रहे। उन्होने बड़ी फुरती से लंका, सुमात्रा, जावा और मलाया आदि द्वीपों का भी अधिकांश अपने कब्जे में कर लिया। इस डच कम्पनी ने अंगरेज़ व्यापारियो की कम्पनी के साथ जी-जान होमकर प्रतियोगिता की। इस कारण दोनो में विषम शत्रुभाव पैदा हो गया। एक दूमरी को नीचा दिखाने की सदा ही कोशिश करती रही। यहाँ तक कि कभी कभी मारकाट तक की भी नौबत आई। बड़ी-बड़ी कठिनाइयां झेलने के बाद अंगरेज व्यापारियो को इन डच व्यापारियो की प्रतियोगिता से फुरसत मिली। कोई मौ वर्ष तक उनके माथ तरह-तरह के दांव-पेच खेले गये। अन्त मे डच लोगों ने आजिज आकर भारत से अपना मरोकार छोड़ दिया। अब अकेली फ्रेंच कम्पनी का मामना अँगरेजों को करना पड़ा। इस फ्रेंच कम्पनी का भी आंतरिक अभिप्राय भारत को धीरे धीरे अपनी मुट्ठी में कर लेने का था। और अँगरेज़ भी इसी इरादे से गैर फैला रहे थे। एक बिल में दो साँप कैसे रहें ? इमसे दोनों मे घोर कलह उपस्थित हो गया। एक ने दूसरे को अपदस्थ करने को कोशिश आरम्भ कर दी। कूटनीति से काम लिया जाने लगा। जब उससे कामयाबी न हुई तब लड़ाइयाँ