पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/६४

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.60/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली "अस्मन्मतं तु नवंविधदुःखध्वंसमात्रं परमपुरुषार्थः । तस्याभावरूपतया तुच्छत्वेन स्वतो मनोहरत्वाभावात् । किन्तु परमपुरुषार्थे दुःखध्वंसादन्यत् किमपि स्पृहणीयमस्ति । यद्वा तद्वा तदस्तु, तत् सर्वथा सर्वज्ञम्य परमदयालो: परमेश्वरस्यैव प्रसादेन तद्भक्तः प्राप्यमस्तीति ॥" इसी तरह बरावर आप, जहाँ जहाँ आवश्यकता थी, अपना मत देते गये हैं । पर कही भी अनुचित आक्षेप किसी धर्म, मत या सिद्धान्त पर नहीं किया। वालेंटाइन माहब की पूर्वोक्त पुस्तक के आरम्भ में जो उपोद्घात, अंगरेजी में है, उममें आपने कितनी ही ज्ञातव्य बातो का समावेश किया है। उसमें आपके उदारता- पूर्ण विचारों की बड़ी ही भरमार है । आपने तत्त्वज्ञान को सब ज्ञानों से श्रेष्ठ समझ कर पहले उमी का विचार किया है । पुस्तक के उत्तरार्द्ध के आरम्भ में आपकी लिखी हुई एक छोटी मी भुमिका, संस्कृत में भी, है। उससे भी आपके हृदय के औदार्य का मोता सा बह रहा है । उमका कुछ अंश हम यहाँ उद्धत करते हैं- "सुनिपुणनांम बुद्धिमतांमविचारे परस्परविरोधः केवलं दु.खहेतुः । वादिप्रतिवाद्य- भिमतार्थत्याभेदेऽपि यदि तयोर्भाषाभेदमात्रेण भेदावभाम: तहि सोऽपि तथैव । अन्योन्यमत- परीक्षणात्पूर्व परस्परनिन्दादिकं निष्फलत्वादनुचितम् । अपि च यत्र केवलं विवदमाननोई- योरपि भ्रान्तिमूलकविवाददरीकरणार्थ. प्रयत्नो महाफलत्वा प्रशस्यस्तत्र भूखण्डद्वयनिवा- मियावद्व्यक्तीनां परम्परं विवादद्रीकरणार्थप्रयत्नः प्रशंमायोग्य इति कि वक्तव्यम् । एतादृशप्रयत्नकारी पुम्प मपूर्णफलप्राप्तावपि न निन्द्यः । भारतवर्षीयार्य जनानां प्राचीनमनग्रन्यपरपालन तत्प्रेम च तेषां महास्तुतिकारणम् । एव प्रतिदिनं वर्द्धमानस्व- मतग्रन्थाभ्यास जनितमननजाविद्धया मन्तुष्यन्तो यूरोपीयलोका अपि न निन्द्याः । यदि कञ्चिद् यूरोपीयजनोभारतवर्षीयार्योक्त वास्तवमपि तदीयव्यवहार तन्मत तत्त्वञ्च यथार्थतोऽविज्ञाय निन्देनदनुचितमेव । एवं यदि भारतीयजनो यूरोपीयमतमविज्ञाय निन्देनदपि तथैव । एवं चान्यत र भ्रान्निजनितमतविरोधप्रयुक्तदुःखस्य हेयतया नद्री- करणायावश्यं कश्चिदुपायोचितमतम्बीकारे मतिमत्फलासम्भवोऽअभीप्मितदुष्टफलमम्भ- वश्व । अतो विचारिणोईयोरेकविषये मतभेदे मदमन्निर्णयाय वाद: ममुचितः । परन्तु यावत्मम्यक् प्रकारेण मतभेदो नावधृतस्तावद्वादोऽपि न समीचीनः । प्रथमतो मतयोर्यथा- मम्भवं माम्यं निर्णीय नदुनर भेदनिर्णयः कर्नब्यो येन मतैक्य विवादो न भवेत् ।" इमीलिए आपने यह उभयभापात्मक 'न्यायकौमुदी' नामक शास्त्र संग्रह ग्रन्थ लिखकर प्रकाशित किया। आपकी पुम्नक के इम अवतरण में कितनी ही बातें ऐसी हैं जिनसे हम लोगों को बढ़त कुछ शिक्षा और उपदेश की प्राप्ति हो सकती है । इम इतने बड़े अवतरण देने का मतलब यह है कि पाठक बालेंटाइन साहब के उस उद्देश को भी समझ जाये जिसमे प्रेरित होकर उन्होंने यह ग्रन्थ लिखा और साथ ही उनकी संस्कृतज्ञता का अन्दाज़ा भी उन्हे हो जाय । आपकी संस्कृत बड़ी ही सरल और सुबोध है । पुस्तक भर में आपने इसी तरह की प्रांजल भाषा लिखी है। आपको संस्कृत में पय-रचना का भी अभ्यास था। पाठक कह सकते हैं कि, सम्भव है, उन्होंने इस पुस्तक को किसी