सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

.62 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली इसमें सन्देह नहीं कि वे संस्कृत बोल भी सकते थे और लिख भी सकते थे। The Light of Asia, India Poetry, Secret of Death itfa gertat के लेखक सर एडविन आर्नल्ड का नाम पाठकों में से बहुतों ने सुना होगा । आपकी भी गिनती संस्कृतज्ञों में है। 1896 में आपने 'चौरपञ्चाशिका' का पद्यात्मक अनुवाद अंगरेजी में करके मूल-सहित उसे प्रकाशित किया। परन्तु टाइप में नहीं, लीथो में। प्रत्येक पृष्ठ को अपने ही हाथ से खींचे गये चित्रों से भी अलंकृत किया। ऐसा करने में किसी किसी पद्य के भाव को आपने चित्र में भी अलंकृत कर दिया। आपकी लिखी हुई 'चौरपञ्चाशिका' की कापी लीथो में छपी हुई हमने खुद देखी और पढ़ी है। आपके नक़ल किये हुए पद्यों में से कई पद्यों में त्रुटियां हैं । परन्तु वे क्षम्य हैं। फ्रेडरिक पिनकाट, भट्ट मोक्षमूलर और अध्यापक मुग्धानलाचार्य की नागरी- लिपि के नमूने तो 'सरस्वती' में निकल ही चुके हैं । डाक्टर ग्रियर्सन भी अच्छी देवनागरी लिपि लिख सकते हैं । उनसे और इन पंक्तियों के लेखक से, एक दफ़े कविता की भाषा के सम्बन्ध में पत्र-व्यवहार हुआ । इस विषय में आपने अपने हाथ से बाबू हरिश्चन्द्र की सर्वश्रुत सम्मति लिख भेजी थी-"भाव अनूठो चाहिए, भाषा कोऊ होय" । आपकी भी वही राय है जो बाबू हरिश्चन्द्र की थी। डाक्टर साहब अनेक पूर्वी भाषाओं और बोलियों के ज्ञाता हैं । हिन्दी भी आप बहुत अच्छी जानते हैं; परन्तु लिखते नहीं। हमारे प्रार्थना करने पर भी आपने हिन्दी में लेख लिखने की कृपा न की। कुछ भी हो, देवनागरी आप सफ़ाई और शुद्धता के साथ लिख सकते हैं । इसमें मन्देह नहीं। आर० पी० ड्यूहर्ट साहब इन प्रान्तों में सिविलियन हैं। कुछ समय पहले आप रायबरेली में डेपुटी कमिश्नर थे। आप हिन्दी, उर्दू और फ़ारमी के अच्छे पण्डित हैं । शायद आप अरवी भी जानते हैं। बड़े विद्वान, बड़े विद्याव्यसनी और बड़े पुरातत्त्वप्रेमी हैं । आपके लेख एशियाटिक सोमाइटी आदि के जर्नलो में निकला करते हैं । आपकी देवनागरी लिपि बड़ी ही सुन्दर और स्पष्ट होती है । शुद्ध भी होती है। मार्च 1907 में इस लेखक के प्रश्नों के उत्तर में आपने कृपा करके एक पत्र लिखा था। उसके लिफ़ाफ़े पर अँगरेज़ी के सिवा देवनागरी में भी पता लिखने की आपने कृपा की थी। जो कुछ यहाँ तक लिम्बा गया, उससे सिद्ध हुआ कि योरप के विद्वान् यदि अभ्याम करें नो पूर्वी देशो की भापाये और लिपियाँ उसी तरह लिख सकें, जिस तरह कि भारतवामी अँगरेजी भाषा और रोमन लिपि लिख सकते हैं। [अगस्त, 1912 की 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'साहित्य-सीकर' में संकलित ।]