पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/७४

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संस्कृत-साहित्य-विषयक विदेशियों की ग्रंथ-रचना ? संस्कृत भाषा का ग्रंथ-माहित्य बहुत विस्तृत है । किसी समय तो वह अपरिमेय था। छापने की कला का प्रचार इस देश में हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ। उसके पहले यहाँ का ममस्त ग्रंथ-समुदाय हस्तलिखित पोथियों ही के रूप में था । तिस पर भी उसकी बहुत रक्षा हुई और रक्षा ही नहीं, समय-समय पर, उसकी वृद्धि भी होती आई । वह ऐसा समय था कि ख़र्च कम था, लोग सादगी से रहते थे, और थोड़ी ही आमदनी पर संतोष करते थे। विद्वान् पंडितों का सर्वत्र आदर था; उन्हें गजाश्रय मिलता था, सर्वसाधारण जन भी उनकी पूजा-अर्चा करते और दान-दक्षिणा से उनकी अर्थ-कृच्छ्ता को सदा उनसे दूर रखते थे । विद्या-व्यामग में रत रहना और अपने छात्रों को अपनी विद्या का दान देना ही पंडितो का काम रहता था । इस तरह सुख और संतोष से वे जीवन बिताने और नये- नये ग्रथो का निर्माण भी करते थे । परतु ममय के फेर से उनके वे मुभीते धीरे-धीर नष्ट नही, तो कम होते गये। उन्हें पेट पालना दूभर हो गया। बात यहाँ तक पहुंची कि काशी की आचार्य और पजाब की शास्त्री-परीक्षा पास कर लेने पर भी उन्हें सरकारी स्कूलों और पाठशालाओ मे 30 रूपये महीने की नौकरी मिलना मुश्किल हो गया। ऐमी दशा में, अंगरजी भाषा के एकाधिकार के पेच में पड़े हुए पंडितो को नवीन ग्रंथ-रचना करने की बात कैसे सुझती ? वे रोटी की फ़िक करते या पुस्तक-प्रणयन की? गज-विप्लव के कारण एक तो यो ही अनत ग्रंथ-रत्न नष्ट हो गये। फिर जीविका का यथेष्ट प्रबंध न होने के कारण मम्कृत भाषा पढ़ने से लोगो को विरक्ति भी हो गई । मस्कृतज विद्वानो की कदर न होने से नये-नये पंडितो का उद्भव बद हो गया। फल यह हुआ कि संस्कृत-ग्रंथ माहित्य की वृद्धि के बदले उमका ह्राम ही होता गया। न अधिक पढ़ने वाले ही रहे, न क़दर ही करने वाले । यही कारण है, जो अब इस भाषा में रचे गये नवीन मौलिक ग्रंथों का कहीं नाम भी सुनने को नहीं मिलता। पर इम दुरवस्था के अस्तित्व में आने के पहले ही भारत के प्राचीन पडिनो ने प्रचंड ग्रंथ-माहित्य नैयार कर लिया था कि लूटने-फूंकने, कीटभक्ष्य होने, मड़ने-गलने और रही के भाव विकने पर भी उसका इतना अंश बच रहा जिसे देख कर उसकी अधिकता पर अब भी विद्वानो वो आश्चर्य होता है । एकत्र करने मे अकेले वैदिक ग्रंथ ही इतने होगे जो शायद वंगाल लेन की रत्न की 16 रेल वाली एक किराची में न ममा सके । पर दुर्भाग्यवश इन ग्रंथो का भी बहुत मा अंश नेपाल, काश्मीर तथा भारत के अन्यान्य प्रांतों का आश्रय छोड़ कर योरप और अमेरिका में जा पहुँचा । नि.सहाय और निरूपाय होने के कारण, अभागे भारतवामियों मे उम मवकी रक्षा न हो सकी । एक हिमाव से यह अच्छा ही हुआ। यहाँ पड़े रहने से शायद उम अंश का भी नाश हो जाता; क्योंकि जो अंश बच रहा है उसी की हम लोग कान बड़ी कदर करते हैं । उसे भी पढ़ने और पढ़ाने