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पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/७९

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संस्कृत-साहित्य-विषयक विदेशियों की ग्रंथ-रचना /75 (50) जैमिनीय गृह्यसूत्र । व्याख्या सहित । मूल्य 15 रुपये। (51) जैमिनीय श्रौतसूत्र । मूल मात्र । मूल्य 15 रुपये। (52) सामविधान-ब्राह्मण । सायन-भाष्य-सहित। बर्नेल-दाग संपादित । मूल्य 70 रुपये। (53) षड्विश-ब्राह्मण । सायन-भाष्य-सहित । योरप में छपा । मूल्य 15 रूपये। (54) गोभिल-गृह्यसूत्र । मूल, भाष्य और अँगरेज़ी-अनुवाद-सहित । मूल्य 10 रुपये। (55) कौणिक-सूत्र । सभाष्य । अमेरिका में प्रकाशित । मूल्य 40 रुपये । (56) गोपथ ब्राह्मण । अनेक विषय-विभूषित । मूल्य 25 रुपये । वैदिक साहित्य से संबंध रखने वाले और भी सैकड़ों ग्रंथो का प्रकाशन पश्चिमी देशो में हो चुका है। उनमे से कुछ तो मूल मात्र हैं, कुछ भाष्य-विभूषित हैं, और कुछ अंगरेज़ी-अनुवाद-युक्त भी हैं । इसके सिवा वैदिक माहित्य-विषयक अनेक मौलिक ग्रन्थो की रचना भी इन पंडितो ने की है। उनमे गुण-दोष-विवेचन के साथ ही साथ अनेक ज्ञातव्य बाता का समावेश भी उन्होंने किया है । टम विषय में जितनी ग्रथ-रचना अन्य देशो में हुई है, उसकी चौथाई भी शायद इस देश मे न हुई होगी। वेदांगों पर भी इन विद्या-रसिकों ने अपनी लेखनी चलाई है। छंद.शास्त्र, व्याकरण, उपनिषद्, दर्शन, धर्मशास्त्र आदि कोई भी विषय इनसे नही छूटने पाया। पुराणो का प्रकाशन भी इन्होंने किया है और उन पर आलोचनात्मक निबध भी लिखे है। जैनो और बौद्धो के साहित्यो पर भी इनकी दृष्टि गई है। उनकी कथा-कहानियों तक के संस्करण इन्होंने निकाले है । जैनो के आचागग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, कल्पसूत्र, औपापतिक सूत्र, आवश्यक सूत्र आदि के अनुवाद इन्होंने कर डाले हैं । हेमविजय के कथाग्नाकर नामक ग्रथ तक का अनुवाद हर्टल साहब ने, जर्म । भाषा में, कर दिया है। उसका मूल्य 25 रुपये है । बौद्धों के ललित-विस्तर का प्रकाशन, लेफमैन की बदौलत, सुलभ हो गया है। उसके दोनों भागो का मूल्य 67 रुपये है । महावस्तु-अवदान का मूल्य 80 रुपये है। उसका संपादन सेनार्ट ने किया है। बुद्धचरित, अवदानकल्पलता, बृहत्कथाश्लोकसग्रह, सुखावजी-व्यूह आदि ग्रंथ भी अब सुप्राप्य हैं । जर्मनी, इगलैंड, फ्रांस, रूस, अमेरिका के बड़े-बड़े पुस्तकागारों में जो अनंत हस्त- लिखित ग्रंथ संगृहीत हैं उन सबके सूचीपत्र भी इन लोगों ने प्रकाशित कर दिये है । वलिन के पुस्तकालय के सूचीपत्र का मूल्य 150 रुपये है । इन सूचीपत्रो को देखकर आश्चर्य और खेद से हृदय अभिभूत हो जाता है। भारत का सस्कृत-ग्रंथ साहित्य कितना विस्तृत था, इसका कुछ अंदाज़ा इन सूचीपणों से लगाया जा सकता है । पर साथ ही दुःव भी होता कि हाय, हम अपने इस अनमोल खजाने की रक्षा न कर सके और वह देशांतर को चला गया । पर एक हिसाब से यह जो कुछ हुआ, अच्छा ही हुआ । अन्यथा, हम अकर्मण्य शायद इसे भी खो देते-अन्य ग्रंथों के सदृश यह भी कीटक-खाद्य हो जाता । बलिन, पेरिस, लंदन और पेट्रोग्राड में भला यह सुरक्षित तो है। [जून, 1923 में प्रकाशित । 'साहित्य-संदर्भ' में संकलित।]