82/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली भाषा बोली जाती है; परन्तु उस पर वहाँ वालों की प्रीति कम है। पढ़े लिखे आदमी बहुधा चीनी भाषा बोलते हैं । राजकार्य भी उसी भाषा में होता है । अच्छे-अच्छे ग्रन्थ भी उसी भाषा में बनते हैं। राज्य-प्रणाणी सब चीन से नकल की गई है। चीन की तरह कोरिया में भी 'मन्दारिन' हैं । परीक्षायें भी वैसी ही होती हैं; और, कोई भी कोरिया- वासी उनमें शामिल हो सकता है। पास हो जाने पर, और बातों का कुछ भी खयाल न करके, उम्मेदवार को, उसकी योग्यता के अनुसार जगह मिलती है। कोरियावाले पहले बौद्ध थे; अब भी कहीं-कहीं इस धर्म का प्रचार वहाँ है, परन्तु चीन के 'कनक्यूशश' नामक धर्म की वहाँ विशेष प्रबलता है। कोरिया-नरेश इसी धर्म के अनुयायी हैं। कोरिया में स्त्रियों का बहुत कम आदर होता है; परन्तु स्वतंत्रता उनको खूब है। बड़े बड़े घरों की स्त्रियों को छोड़कर और कहीं वे परदे में नहीं रखी जाती। पुराने जमाने में जापान ने कोरिया को कई बार हराया है। 1790 ईसवी तक कोरिया-नरेश जापान की रक्षा में समझे जाते रहे हैं । परन्तु उसके बाद कोरिया ने चीन का आधिपत्य स्वीकार कर लिया । कोरिया को यद्यपि सब तरह की स्वतत्रता थी, परन्तु चीन-राज को उसे अपना राजेश्वर समझना पड़ता था, और वार्षिक कर भी देना पड़ता था। 1875 ईसवी में जापान ने दबाव डालकर कोरिया के साथ मन्धि की। उसके अनुसार जापान को कई अधिकार मिले । उमका वहाँ प्रवेश हो गया, और धीरे-धीरे महत्त्व बढ़ा। जापान का एक अधिकारी 'रेजिडेंट' की तरह वहाँ रहने लगा । जापान के जहाज कोरिया के वन्दरो में आने जाने लगे, जापानी व्यापारी भी वहाँ अधिकता मे व्यापार करने लगे। कोरियावाले अपने नरेण को देवता समझते हैं, देवता ही के सदृश वे उमको ज्य मानते हैं । परन्तु राजा का वह नाम, जो उसे चीन के राजगजेश्वर से, मिहासन पर बैठने के वक्त, मिलता है, मुंह से निकालना पाप है । राजा के शरीर को लोहे के शस्त्र से स्पर्श करना सबसे भारी अपगध है. उसका प्रतिशोध केवल प्राण-दण्ड है। लोहे का स्पर्श होना बहुत ही बुरा ममझा जाता है। 1800 ईसवी में टेंग-सांग-ताप-बोग नाम का राजा एक फोड़े से पीड़ित होकर मर गया, परन्तु उसको चीरने के लिए लोहे के शस्त्र का म्पर्श उमने स्वीकार नहीं किया । मियूल मे घुड़मवार को यदि राजप्रासाद के पास से निकलना पड़े तो उसे घोड़े से उतरना पड़ता है। यदि कोई राजसभा में पैर रक्वे, और राजदर्शन करना चाहे, तो मिहामन के सामने, हाथ-पैर लम्बे करके, पृथ्वी पर गिरकर, उसे दण्ड-प्रणाम करना पड़ता है। कोरिया के वर्तमान नरेश का पवित्र नाम 'बनी ई' है। 1864 में आप राजा , और 1897 में, आपने राजराजेश्वर की पदवी धारण की। आपका वंश कोरिया में 1392 ईमवी मे चला आता है। आप अपने वंश के तेरहवें नृपगज हैं । आपके अधीन एक मन्त्रिमण्डल है, वही कायद-कानून बनाता है। वही सब विषयों का विधि-निषेध करता है। उसके मन्तव्यों का विचार राजेश्वर करते है और विचार करके उनको मंजूर करते हैं। 1894 तक बनी ई का राजत्व, चीन की रक्षा में, अखण्डित बना रहा । परन्तु इस वर्ष जापान ने कोरिया के ऊपर चीन का स्वत्व स्वीकार न किया। चीन और . -
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