पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/९०

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86 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली । परन्तु धन्य है उनके साहस को ! उन्होंने एक बार पामीर और तिब्बत के कुछ हिस्से में सफ़र किया था। उस समय ग्यारहवीं बंगाल लैसर्स का शाहजादमीर नामक दफ़ेदार उनके साथ था। भाग्यवश व्यल्बी साहब को यह दफ़ेदार मिल गया था। उससे उनको बड़ी मदद मिली। तिब्बत में चीन का सार्वभौमत्व है; वह चीन का करद राज्य है। हर साल उसे चीन को कर देना पड़ता है। तिब्बत का राज्यसूत्र चीन है । चीनियों को छोड़कर तिब्बत वाले और किसी को अपने देश में नहीं आने देते । तिब्बत वाले शायद यह समझते हैं कि अपने से अधिक सज्ञान लोगों को अपने देश में आने देने से लोग धीरे धीरे तिब्बत का आधिपत्य अपने हाथ में कर लेगे। ईस्ट इंडिया कम्पनी के पहले गवर्नर जनरल हेस्टिग्ज के समय तक तिब्बत का बहुत ही कम हाल इस देश वालो को मालूम था । तिब्बत और हिन्दुस्तान से किसी तरह का सम्बन्ध तब तक न था। परन्तु हेस्टिंग्ज ने रंगपुर के रहने वाले पुरन्दर गिरि नामक संन्यामी को तिब्बत के प्रधान लामा के पास भेजा। उस संन्यासी ने अपना काम सफलता- पूर्वक किया और वहाँ से सकुशल लौट भी आया। परन्तु तिब्बत के सम्बन्ध से बाबू शरच्चन्द्र दास ने, इस समय, बहुत बड़ा नाम पाया है। 1882 में दाजिलिग से रवाना होकर वे लासा तक चले गये; लासा में वे कई महीने तक रहे भी। उन्होने तिब्बत पर जो पुस्तक लिखी है उसका सब कहीं बड़ा आदर है। इस उपलक्ष्य में गवर्नमेंट ने उनको राय वहादुर की पदवी देकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की। बौद्ध शङ्कराचार्य दलाय लामा के विषय मे दाम बाबू, अपनी किताब में एक जगह लिखते है- "हम को दलाय लामा के दर्शन हुए । उनकी उम्र, इस समय, आठ वर्ष की है। हमने देखा कि वे एक उच्च और सुसज्जित सिंहासन पर बैठे हैं । उनके दर्शनों के लिए दर्शक और पूजक लोग बड़ी भाव-भक्ति से एक एक करके भीतर जाते थे। वहां पर लामा के चरणस्पर्श करने पर लामा के अधिकारी उनको आशीर्याद देते थे। जब हम लामा के पास से वापस आकर अपनी जगह पर बैठे तब हम को लामा का प्रसाद रूप थोड़ा मा चाय मिला । उसे हमने पी लिया; परन्तु उनके नैवेद्य में से जो भात हम को दिया गया, वह हमने नहीं खाया; उसे हमने अपने पास रख लिया। इसके बाद लामा के प्रधान पुरोहित ने कुछ मन्त्र-पाठ कर के लामा के चरणो पर अपना मस्तक रक्खा। जब यह हो चुका तब उसने मब को आशीर्वचन कह कर सभा बर्खास्त की। कवागची केकय नामक एक जापानी भिक्षु तिब्बत में बहुत दिन तक रहा है। उसने भी अपने प्रवास का वर्णन प्रकाशित किया है । तिब्बत मे जगह जगह पर मठ है । 'ओं मणि पद्म हूं' तिब्बतियों का प्रधान मन्त्र है ! लम्बे लम्बे काग़ज़ों पर मन्त्र लिखकर वे काग़ज़ एक प्रकार के पहियों पर लपेट दिये जाते है । ये प्रार्थना-चक्र लकड़ी या पत्थर के बम्भो पर लगे रहते हैं और हवा के ज़ोर से घूमते हैं। पहिये के माथ काग़ज का टुकड़ा भी घूमा करता है । इस घूमने को तिब्बत वाले मन्त्र की आवृत्ति मानते हैं । तिव्बत में कई मठ और मन्दिर बहुत बड़े बड़े है : उनमें पाठशालायें भी है; पुस्तकालय भी है; और शिक्षक लामा तथा विद्यार्थियों के रहने के स्थान भी हैं।