सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पराक्षा १०५ लपटें उड़ाती, छमछम करती हुई दीवाने-खास में आकर नादिरशाह के सामने खड़ो हो गई। नादिरशाह ने एक बार कनखियों से परियों के इस दल को देखा और तब मस- नद को टेक लगाकर लेट गया। अपनी तलवार और कटार सामने रख दो । एक क्षण में उसकी आंखें पकने लगी। उसने एक अंगड़ाई लो और करवट बदल लो । जरा देर में उसके खर्राटों को भायाजे सुनाई देने लगों। ऐसा जान पड़ा कि वह गहरो निद्रा में मग्न हो गया है। भाध घटे तक वह पढ़ा सोता रहा, और बेगमें ज्यों-को- यो सिर नीचा किये दीवार के चित्रों को भांति खड़ी रहीं। उनमें दो-एक महिलाएँ जो ढीठ थो, चूं घट को ओठ से नादिरशाह को देख भी रहो थी और आपस में दयो परमान से कानाफूसा कर रही थीं-कैसा भयकर स्वरूप है । कितनो रणोन्मत्त आँखें हैं। कितना भारी शरीर है। आदमी काहे को है, देव है। पहसा नादिरगाह को आँखें खुल गई। परियों का दल पूर्ववत् खड़ा था। उसे लागते देखकर वेगमों ने सिर नीचे कर लिये और अग समेटकर भेड़ों की भांति एक दूसरे से मिल गई । सयके दिल धड़क रहे थे कि अब यह जालिम नाचने-गाने को कहेगा, तय कैसे क्या होगा! खुदा इस फालिम से समझे। मगर नाचातो न जायगा । चाहे जान ही क्यों न जाये। इससे ज्यादा झिल्लत अव न सही जायगी। सहसा नादिरशाह कठोर शब्दों में पोला-ऐ ख़ुदा को बन्दियों, मैंने तुम्हारा इम्तहान लेने के लिए बुलाया था और अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि तुम्हारो निसबत मेरा जो गुमान था वह हर्फ ब-हर्फ सच निकला । जब किमी कौम की औरतों में गैरत नहीं रहता, तो वह कौम सुरक्षा हो जाती है। मैं देखना चाहता था कि तुम लोगों में भी कुछ औरत जानो है या नहीं। इसलिए मैंने तुम्हें यहाँ बुलाया था। मैं तुम्हारी बेहुरमतो नहीं करना चाहता था। मैं इतना ऐश का धन्दा नहीं हूँ, वरना आज भेड़ों के गल्ले चराता होता। न इतना हक्सपरस्त हूँ, वरना आज फारस में सरोद और सितार की ताने सुनता होता, जिसका मजा मैं हिन्दुस्तानी गाने से कहीं षयादा उठा सकता हूँ। मुझे सिर्फ तुम्हारा इम्तहान लेना था। मुझे यह देखकर सच्चा मलाल हो रहा है कि तुममें गैरत का नौहर पाको नहीं रहा। क्या यह मुमकिन न था कि तुम मेरे हुक्म को पैरों तले कुबल देतो ? जब तुम यहाँ आ गई तो मैंने