गरात नही, ही कुछ ! - तक न करता कि कहाँ बहू का दिल न दुखे, नहीं बालक को कष्ट होगा। कभी-कभी निरुपमा केवल घरवालों को जलाने के लिए अनुष्ठान करता, उसे उन्हें जलाने में मज़ा आता था। वह सोचती, तुम स्वाथियों को जितना जलाऊँ उतना ही अच्छा। तुम मेरा आदर इसी लिए करते हो न कि मैं बच्चा जनूंगी और बच्चा तुम्हारे कुल का नाम चलामेगा । मैं कुछ नहीं हूँ, मालक ही सब कुछ है। मेरा अपना कोई महत्त्व वह बालक के नाते । यह मेरे पति हैं। पहले इन्हें मुझसे कितना प्रेम था, तव इतने संसार-लोलुप न हुए थे। अब इनका प्रेस केवल स्वार्थ का स्वांग है। मैं भी पशु हूँ जिसे दूध के लिए चाग-पानी दिया जाता है। खैर यही सही, इस वक्त तो तुम मेरे काबू में आये हो ! जितने गहने वन सकें, बनवा लूं, इन्हें तो छीन न लोगे। इस तरह दस महीने पूरे हो गये। निरुपमा की दोनों ननद ससुराल से बुलाई गई, पच्चे के लिए पहले ही से सोने के गहने बनवा लिये गये, दूध के लिए एक सुन्दर दुधार गाय मोल ले ली गई, घमण्डीलाल उसे हवा खिलाने को एक छोटी-सी सेजगादी लाये । जिस दिन विरुपमा को प्रसव-वेदना होने लगी, द्वार पर पण्डितजी मुहूर्त देखने के लिए बुलाये गये, एक मोरशिकार पन्दुक छोल्ने को बुलाया गया, गायने मगल-गान के लिए बटोर ली गई । घर में से तिल-तिल पर खगर मँगाई जातो थी, क्या हुमा ? लेडी डाक्टर भी बुलाई गई । माजेवाले हुक्म के इन्तजार में बैठे थे। पागर भी अपनी सारगी लिये सच्चा मान करे नंदलाल सो' की तान सुनाने को तैयार बैठा था। सारी तैगरिया, सारी आशाएँ, सारा उत्साह, सारा समारोह एक ही शब्द पर अवलम्बित था। ज्यों-ज्यों देर होती थी, लोगों में उत्सुकता वढतो जाती गी। घमण्डोलाल अपने मनोभावों को छिपाने के लिए एक समाचारपत्र देख रहे थे मानों उन्हें लड़का या लड़को दोनों ही बराबर हैं। मगर उनके बूढ़े पिताजी इतने सावधान न थे। उनको बाछे खिली जाती थी, हँस-हँसकर सपसे बातें कर रहे थे और पैसों की एक थैली को बार-पार उछालते थे। मौरशिकार ने कहा-मालिक से अबकी पगड़ी-दुपट्टा लूँगा। पिताजी ने खिलकर कहा-बे, कितनी पगड़ियां लेगा? इतनी वेभाव को दंगा कि सिर के बाल गजे हो जायेंगे। पामर बोला- सरकार से अब को कुछ जीविका लगा।
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