पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१२६

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नैराश्य हूँ, इसीलिए न कि परक्श हूँ | क्या होगा ? अभी एक क्षण में यह आनन्दोत्सव शोक में डूब जायगा, मुझ पर पौछारें पड़ने लगेंगी, भीतर से बाहर तक सब मुम्को को कोसेंगे, सास-ससुर का भय नहीं, लेकिन स्वामीजी शायद फिर मेरा मुँह न देखें, शायद निराश होकर घर-बार त्याग दें। चारों तरफ़ अमल हो अमङ्गल है। मैं अपने घर की, अपनी सतान की दुर्दशा देखने के लिए क्यों जीवित रहूँ १ कोशल बहुत हो चुका, अब उससे कोई भाशा नहीं। मेरे दिल में कैसे-कैसे अरमान थे। अपनी प्यारी बच्चियों का लालन-पालन करती, उन्हें ज्याहतो, उनके बच्चों को देखकर सुखी होती । पर आह ! यह सब अरमान खाक में मिले जाते है । भगवान् । अब तुम्ही इनके पिता हो, तुम्ही इनके रक्षक हो । मैं तो अप जातो हूँ। लेडी डाक्टर ने कहा- वेल 1 फिर लड़की है। भीतर-बाहर कुहराम मच गया, पिट्टस पड़ गई । घमण्डीलाल ने कहा- जहन्नुभ में जाये ऐसी जिन्दगो, मौत भी नहीं आ जातो! उनके पिता भी बोले--अभागिनी है, वज्र अभागिनी ! भिक्षुकों ने कहा-रोओ अपनी तकदीर को, हम नेई दूसरा द्वार देखते हैं। अभो यह शोकोद्गार शान्त न होने पाया था कि लेडी डाक्टर ने कहा-मां छा हाल अच्छा नहीं है। बह अब नहीं बच सकती। उसका दिल बन्द हो गया है।