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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 3.djvu/१३२

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। जा नहीं सकता। न जाने किस बुरो साइत में मैंने इसके रुपये लिये । जानता कि यह इतना फिसाद खड़ा करेगा तो फाटक में घुलने हो न देता। देखने में तो ऐसा सीधा मालूम होता था कि गऊ है। मैंने पहली बार भादमी पहचानने में घखा खाया । पत्नी-तो मैं ही चली जाऊँ ? शहर की तरफ से आऊँगो, और सब भादमियों को हटाकर अकेले में बातें करूंगी। किसी को खबर न होगी कि कौन है । इसमें तो कोई हरज नहीं है ? मिष्टर सिनहा ने सदिग्ध भाव से कहा-ताड़नेवाले ताइ हो जायेंगे, चाहे तुम कितना हो छिपाओ। पत्नो-ताड़ जायेंगे, ताइ जायँ, अब इसको कहां तक डा। बदनामो अमो क्या फम हो रही है लो और हो जायगी । सारी दुनिया जानती है कि तुमने रुपये लिये । योही कोई किसी पर प्राण नहीं देता। फिर अम व्यर्थ को ऐ ठ क्यों करो। मिस्टर सिनहा अब मर्मवेदना को न दवा सके । बोले-प्रिये, यह व्यर्थ को ऐंठ नहीं है। चोर को अदालत में बेत खाने से उतनो लज्जा नहीं आता, स्त्रो को कलक से उतनी सज्जा नहीं आतो, जितनी किसो हाकिम को अपनो रिशवत का परदा खुलने से आती है। वह जहर खाकर मर जायगा, पर ससार के सामने अपना परदा न खोलेगा। वह अपना सर्वनाश देख सकता है, पर यह अपमान नहीं सह सकता। ज़िदा खाल खींचने, या कोल्ह में पेरे जाने के सिवा और कोई ऐसी स्थिति नहीं है जो उससे अपना अपराध स्वीकार करा सके। इसका तो मुझे जरा भो भय नहीं है कि ब्राह्मण भूत बनकर हमको सतायेगा, या हमें उसको बेदो बनाकर पूजनी पड़ेगी ; यह भी जानता हूँ कि पाप का दड भो बहुधा नहीं मिलता। लेकिन हिंदू होने के कारण संस्कारों की शका कुछ कुछ पनी हुई है । ब्रह्महत्या का कलंक सिर पर लेते हुए भात्मा कापती है । बा, इतनी पात है। मैं आज रात को मौका देखकर जाऊंगा और इस सफ्ट को टालने के लिए जो कछ हो सकेगा, करूँगा। खातिर जमा रखो। आधी रात बीत चुकी थी । मिस्टर सिनहा घर से निकले और अकेले जगत पाहे को मनाने चले । बरगद के नीचे बिलाल सन्नाटा था। अधकार ऐसा था मानों निशा- देवी यही शयन कर रही हो। जगत पड़ेि को सांस जोर-जोर से चल रही थी, मानों मौत जपरदस्तो घसीटे लिये जाती हो। मिस्टर सिनहा के रोएं खड़े हो गये । बुड्ढा